पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२३२

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मोरख-बानी] १६१ मछिंद्र-अवधू सहज हंस का घेल मणीजै, सुंनि इस का बास। सहजै हो आकार निराकार होइसी, परम जोति इंस का निवास ॥४०॥ मोरष- स्वामी अमूल का कौंण मूल, मूल का कथं वास । पद का कौंण गुरू, पूछंत गोरप नाथ ॥ ४१ ॥ मछिंद्र-अवधू अमूल का सुनि मूल, मूल का निरन्तर वास । पद का निरबांन गुरू, कयंत मछिंद्र नाथ ॥ ४२ ॥ गोरष-स्वामी जी कथं उतपदिते प्रांण, कथं उदपदिते मन । कथं उदपदिते बाचा, कथं बाचा विलीयते ॥ ४३ ॥ मछिद्र-अवधू अबगति उतपदिते प्राण, प्राण उदपदिते मन'। मन उदपदिते वाचा, बाचा मन बिलीयत ।। ४४ ॥ गोरध-स्वामी कौंन सरोबर कौंण सनाल । कौंण मुष होइ बंचिये काल । लोक अगोचर कैसे लिवरलहै । मन पवन कैसें समि रहे ॥४५॥ मछिंद्र-अवधू मन सरोवर पवन सनाल । उरधा मुष होइ बंचिये जम काल ।। अरघ उरधा अगोचर लिवालहै । मन पवन ऐसें समि रहै ॥४६॥ गोरप-स्वामी कौन सो विषमी कौण सो संधि । कौंणे चको लागै बंध। कौंग१८चेतनि मन उनमनि रहै । सतगुर होइसुझां कहै ॥४॥ मछिद्र-अवधूअनली बिमली विषमी संधि । चाको अपरि लागै वन्ध । सदा चेनि मन उनमन रहै। ऐसा विचार मछिंद्र कहै ॥४८॥ १. (घ) बासा...निवासा । २. (घ) सहज ही , ३. (घ) निराकार । ४. (क) पर्म । ५. (प) पछत जवी । ६. (क) नृवाण । ७. (घ) श्री म... १८. । ६. (क) में ४३, ४ नहीं हैं। १.. (घ) मुषि। ११. (५) बांचीवा। १२. (घ) ल्यो। १३. (क) उरद । १४. (घ) अर्घ उर्थ । १५. (घ) ।। १६. (१) सिघ । १७. (घ) कौंण ही चक्री लाये । १८. (1) कौंद। (१) मॅन १९. (१) चौकी।