१३ १२ १६२ [गोरख-बानी गोरष-स्वामी कहां उतपन्यां ब्यापक',कहां आदि को अस्तुत समाई। ए तत्व कहौ गुरू गुसांईजहां हमारी उत्पति रहाई ॥४॥ मछिंद्र-अवधू तिल मधे जथा तेलं, काष्ट मधे हुतासनं । पहप मधे जथा वासं, देही मधे तथा देवता ॥५०॥ गोरष-स्वामी सापणि कुहकै कौणे भाइ । बङ्क नालि कै कोण ठाइ॥ जब यहि प्राणी निद्रा करे, पिंड मधे प्राण कहां होइ रहै ॥५१॥ मछिंद्र-अवधू सापिणि कुहकै सहज सुभाइ । बक नालि है नाभी ठाइ3 ॥ जब यहि प्राणी निद्रा करै,पिण्ड मधे प्रांण अपरछन रहै ।।२।। गोरष-स्वामी कोण चक्न दिढ़ करि चंद। कोणे चक्रे लागै बन्ध ।। कोण च निपावै निरोधकौंणे चक्र मन प्रमोध ॥ कौंणे च धरिय ध्यान १६१ कौंण चक्र लीजै बिधाम ॥५३॥ मछिद्र-अवधू अरधैं च दिढ़ करि चंद । उधैं चक्कै लागै बन्थ ।। पछम च निपावै निरोध । हिरदा चक्र में मन प्रमोध ॥ कांठे चक्र धरिये ध्यान । ग्यांने च लीजै विश्राम ॥५४|| गोरष-स्वामी कौंन उदै माया सुन्नि । नौ ग्रह कैसे पाप न पुन्नि । कौंन ग्रह लै उनमन रहै । सतगुर होइ बूझ्या कहै ॥५५॥ १. (क) में 'व्यापक', और 'समाई', नहीं । २. (घ) असूतति । ३. (घ) एतत गुसांई कही समझाई । ४. (क) में रहाई' नहीं है । ५. (1) होतासनं । ६. (घ) 'देही के पहले 'यू' है और 'मधे के बाद 'तया' नहीं है ७. (५) अपणी । (घ) भाय...टांय । ७. () कहोकै । ८. (घ) है । ९. (क) में जब 'यहि के स्थान पर 'कहां कहां' है। १०. (क) न्यद्रा । ११. (क) प्यंड । १२. (घ) प्रांण पुरस । १३. सुभाई...हांई। १३. (घ) अपरछन्द । १४. (१) में ५३, ५४ छन्दों में यहाँ सर्वत्र 'कौगर के स्थान पर 'कोण' और 'च' के स्थान पर 'चकमैं है तथा चक्रों के नाम विभक्ति रहित हैं । १५. (क) पवन निरोधे । १६. (घ) प्रमाधै। १७. (घ) धरै धियांन । १८. (क) में माया से पहले 'सु' । १९. (घ) सुान...पुनि । २०. (घ) नवमहे । २१. (घ) सु । १९ २० ३.२१ 99
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