पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६६ [गोरखम्बानी गोरष-स्वामी कहां से सक्ती' कहां बसै सीव । कहां दसै पवना कहां बसै जीव ॥ कहां होई इनका परचा लहै । सतगुर होइ सुबूझयां कहै || मछिंद्र-वधू अरधैं बसै सक्ती उग्धैं बसै सीव । भींतरि बसै पवनां अंतरी बसै जीव ॥ निरंतर इनका परचा लहै । ऐसा विकार मछींद्र कहै ।।८०|| गोरष-स्वामी कौंण मुषि वैठे कौण मुषि चले। कौंण मुषि' बोलै कौंण मुप मिले ।। क्यू करि स्वामी नृभैरहै । सतगुर होइ सुवूझ्या कहै ॥१॥ मछिंद्र-अवधू सुरति मुषि बैठे सुरति मुषि चलै, सुरति मुषि बोलै सुरति मुषि मिलै । . सुरति निरति१२मैं नृभै रहै, ऐसा विचार मछिंद्र कहै ॥२॥ गोरष स्वामी कौंण सो , कौंण सोप"सुरति । कौण सो बंध कौण सो निरति । दुवध्या भेटै१७ कैसे रहै । सतगुर होइ सु झयां कहे ।।३।। मछिंद्र-अवधू सबद अनाहद सुरति सोचित । निरति निरालंम लागै वंध दुवघ्या मेटि सहज मैं रहै । ऐसा विचार मछिंद्र कहै ॥४॥ गोरप-स्वामी कौण सो पासण कौंण सो ग्यांन । किहि विधि वाला धरै धियांन । । १. (घ) सकति । २ (घ) प्रांग । ३. (५) यनका । ४. (घ) अरधै । ५. (घ) सक्ति । ६. उरधै । ७. (घ) अंतरीष । ८. (घ) निरन्तरि होय । ६. (घ) 'कौण मुषि' के स्थान पर 'कसै'। १०. (घ) दहुँ मैं; (घ) निरभै । ११. (८) कौल सुरति मैं निरभै रहै। १२. (क) सुरति न्यरति; (घ) निरवरति सुरति । १३. () निरभे । १४. (घ) में नहीं है। १५. (घ) स । १६. (६) स बंध्यौ काया सो निरति । १७. (घ) मेटि र । १८. (घ) तु ।