पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२४९

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२०६ [गोरख-बानी सोलह कला चंद्रमा की ताकै गुण घट भींतरि राषै। ते कौंण कोण । सांति२, नृवर्त, क्षिमा, नृमल, निहचल", ग्यांन, सरूप, पद, नृवाण, नृविप, निरंजन , अहार, निद्रा, मैथुन , वाई, अंमृत ये सोलह कला चंद्रमा की बोलिये एचारि कला सुरज की साधै तौ सोलह कला चंद्रमा की पावै । एती एक रोमांवली ग्रंथ जोग कथितं श्री गोरखनाथ। नृवर्त निवृत्ति। नृविष= निर्भीक या विष रहित । १. (घ) सोल्द । २. (घ) स्वांति । ३.(घ) निरवरति । ४. (घ) छिम। ५. (क) निरांचत (? निसचल )। ६. (घ) निरविष । .. (घ) में ग्यारहयो मंख्या पर निवामीक' अधिक है और सोलह की संख्या को यनाये रखने के उदय से 'पाई यमता एक में मिला दिये गये हैं ८. (क) मुनिंद्रा। (१) महीपन । १०. (घ) गोल्दै । ११. (प) में अंतिम पंक्ति नहीं है। ६.