२२० [ गोरखम्बानी सौंट्यौ लाकड़ि ज्यू घुण लागै, लोहै लागै काई । विन परतीति कहा गुरु कीजै, काल ज प्रास्यां जाई ॥ ११ ॥ रांही तज्यां न पसिया जीवै, पुरुष तज्यां नहीं नारी। फहै नाथ ये दोनयू विनस, धोषा की असवारी ॥ १२ ॥ वैसन्दर मुषि ब्रह्म' जो होते, सुद्र पढ़ाऊ यांनी । असंमेद विधि ब्रह्म-जग निपजां, नैं जुगति जमाया पांनी ॥ १३ ॥ तो जुग रांड्या जोगेस्वर व्याह्या, सिव सक्ती सूफेरा। जा पद मिंदर पुरुप विलंब्या, वहि मिंदर घर मेरा ॥१४॥ - पड़ कर नो हो और अमरत्व प्रदान करे । याघिन तो दांतों से चया कर खाती है, किन्तु भग गिना दांतों के दुनिया को खाया करती है कामुकता में अपने पुरुषत्व को नष्ट करते हैं, उन्हें प्राण-पुरुष (अन्तर्यामी ब्रम) का रहस्य नहीं मिला । उसे लोद पर वे माया में पर फर नष्ट हो गये ॥ १० ॥ सूखी नकदी पर जैसे घुन लगता है, लोहे पर जैसे ना लगता है, उसी प्रकार यदि पिना विश्वास वाले साधक को कान अस ले जाप तो गुरू क्या कर सकता है ॥११॥ जी को छोड़ कर पुरुष नहीं जी सकता । (पुरुष को स्वस्सी इसलिए कहा है, कि कवि की रष्टि में ऐसे लोग वस्तुतः अध्यात्मतः नपुंसक है । ) और पुरुष को छोड़ कर स्त्री नहीं जीती। इस प्रकार धोखे की सवारी पर सवार हो कर दोनों नष्ट हो जाते हैं ॥ १२॥ सन्दर (वैश्वानर= योगाग्नि) में जो भ्रम फा होम फरदे, ऐसे शुद्र को मी में पानी पढ़ाता है, शिष्य पनाता हूँ। इस प्रकार (भ्रम यिनाशन द्वारा) मारवाधिक भरयमेध ( महाप पूर्ण यज्ञ) को विधि संपन्न हुई, मल-यज्ञ निम्पन्न रमा (निपगा), पूर्ण श्रा और युक्ति से पानी जम गया (क्षरण-शोन्ट भयो गामी चल ग मांध्र में स्थिर हो गपा)॥ १३ ॥ अप पोगरवर शिय हो यिवाहित है, क्योंकि शिव ने शक्ति (उमा सती) पाय मायरी ली है, तो इस में पारचर्य ही क्या है, क्योंकि सारा) जग 1 १. स्पीन पाट (अ) 2. अनुगार, (५) 'बा'।
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