पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२५८

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, गोरखम्बानी] गिरही के घरि जनम हमारा, सङ्गति सुरति दिदांणी। कहै नाथ जीव ब्रह्म एकै, जब सिव घरि सक्ति समांणी ॥३१॥ अनहद धुनि मैं रहनि हमारी, तत्त देखि मन लागा। थापा माहीं आपा प्रकट्या, जब जाय धोषा भागा॥३२॥ जे नर जोनि अजोनी सिंभू, सिध पुरष सूं मेला जा रहनी मैं थान हमारा, ता घटि पुरिष अकेला ॥३३॥ उरधै भरे सो थिरि हैं पीवै, सूधै घटि संवारी। अंधै लोचन सब जग सूझे, सालिम सब अंधियारी ॥३४|| संशय ( सन्देह ) साधक को नहीं छू पाता, और आगे पीछे सर्वत्र ही ज्योति- स्वरूप के दर्शन होते हैं । (अपूठी = दृष्ठ, पृट्ट, पूठी । प्रारम्भ में 'अ' का निर- यंक आगम) नौ लाख किरणों के पीठ पीछे और करोड़ किरणों के मुंह भागे प्रकट होने से यही अभिप्राय है ||३०|| गृहस्य के घर हम ने जन्म लिया है, विरक्त, साधु, योगी और महात्माओं की संगति में हम ने भाभ्यास्मिक मनोवृत्ति ( सुरति) को छ किया है। कुछ कहते हैं, कि इस प्रकार जब प्रकल स्वरूप शिव में सकल स्वरूपा शळि समा जाती है, तब जीव और ब्रह्म एक हो जाते हैं ॥२७॥ अनाहत नाद में हमारी रहनि { निवास) है। तस्व का हमें साक्षात्कार हो गया है। और उसी पर मन लग गया है, इस प्रकार जब अपने मायाविष्ट अस्तित्व (आत्मा) के भीतर ही वास्तविक स्वरूप (आत्मा) के दर्शन हो गये, तब जाकर धोखा मागा ॥३२॥ नर योनि ही में जिसे सिद्ध पुरुप भयोनि शम्भु का साक्षात्कार हो गया है, और जो उस "रहनी" को रहता है, जिसमें हमारी स्थिति है, उसके शरीर में केवल-पुरुप प्रकट होता है। इस पद्य का यह भी अर्थ हो सकता है कि-नो नर-योनि है, उनी में अयोनि शम्भु भी है । इस लिये जिन लोगों ने अपने अन्दर के अपोनि शम्भु का साक्षात्कार कर लिया है उन सिद्ध पुरुषों से मेल ( सस्संग) करना चाहिए, इस प्रकार जो उस रहनी को अपना बेता है, जिसमें हमारी (सिद योगी को) स्थिति है, उसके शरीर में केवल पुरुष प्रकट होता है ॥३३॥ जो नीचे से उटाने वाशी धारा को उपर से भर्यात् औंधे घड़े में मरता है; ,