पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२६२

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पंच मात्रा वोउं अनादि योलंत परतर पंथ । जिभ्या इंद्री दीजै बंध ॥ जोग जुगुति मैं रहै समाइ । सो जोगी सिर भद्रः कराइ ॥१॥ द्वादस मंदिर सिव थांन । तेहू उत्तम ब्रह्म ग्यांन॥ द्वादस निहचल एक मैं रहै । ते जोगी सिर टोपी वह ।।२।। देपै ये तत सून्य अकास | पंच' तत्त मैं महा पुरिस का वास ॥ पंच तत्त ले उनमनि रहै । अछया होइ तो जोगेंद्र कहै ॥३॥ पंच तत्त का करोहु बिचार । बाहर भीतर येकंकार ।। मिछया मांगै नग्री द्वार । माया मोहू तजै जैजार २ ॥४॥ अरध उरध बीची कॅमली भोग। सुणौ हो अवधू अध्यातम जोग ।। मनमुंडै तो मस्तक मूंडी। नहींतर पड़ौ नरक की कँडी ॥२॥ ये ता येक अवधू पंच तत्त मात्रा का विचार । वदंत गोरष दसवै द्वारि ।। आदि संष अनिल उपाया। अनंत सिधां लै मस्तकि 3 लाया। कान ४ सुणाय गुएँ दीन्ही दोष्या'५ नवखंड प्रथी मांगो भोप्या ५॥ भिछया मांगि निरतरि रहै । ते जोगी कानां मुद्रया' ६ वहे ॥७॥ अहुँठ हाथ गल' कंथा पाई । चंद सुर दोउ थेगली लाई ८ ॥ पंच मात्रा (घ), (च) और (अ) के आधार पर । १. (घ) ॐ अनाद । २. (घ) यंद्री । ३. (घ) सिर भिद्र; (च) सर भद्र ४. (घ) तहां । ५. (घ) उत्म । ६. (घ) गियांन । ७. (घ) निहिचल ! ८.(घ) सिरि । ९. (घ) सुनि । १०. (घ) पांच । ११. (च) नन । १२. (च) जंजाल १३. (घ) मस्तग । १४. (घ) कानि । १५. (क)दीच्या "भिझ्या । १६.(क) काने मुद्रा । १७. (ड) गलि । १८. (क) पाय"वगाय ।