पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२६८

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गोरख-बानी] २२५ । पृथ्वी का गुरू मन देवता, बाचा सरूपी', श्रापका गुरू चंद्र देवता बुधि सरूपी, तेज का गुरू सूरज देवता अनादि सरूपी आकास का गुरू श्री गोरष जती अविगति सरूपी'। स्वामीजी प्रिथी की कौण भारिज्या। वाय की कौंण भारिज्या। अपकी कौंण भारिया। तेज को कौंण भारिज्या । आकास को कौंण भारिल्या। अवधू प्रिथी की भारिज्या आसा धनवंती । अप की भारिज्या मनसा चोरटी। तेज की भारिज्या कलपनां चंडाली। वायकी भारिज्या चिंता डाकपी। आकास की भारिज्या संक्या शीलवंती। स्वामी जी प्रिथी कौंण गुणीं। आप कौंण गुणां। तेज कौण गुणां बाय कौंण गुणां । आकास कौण गुणां । अवधू प्रिथी मूल गुणी। अप बृध गुणां । तेज रूप गुणां । वाय प्रमल गुणां । आकाश मैथन गुणां । तौ स्वामी पंच तत्त की कथं उतपती, कथं पपती। अविगत उतपना ॐ ॐ उतपदितेराकास आकास उतपनी बाई। वाई उत्पन्यां तेज। तेज उत्पन्यां तोया। तोया उत्पनी मट्टी। मट्टी प्रासत तोया । तोया भासत तेज । तेज प्रासत बाई । बाई पासत आकास। आकास प्रासंत ॐ। ॐ प्रासंतते अविगत । अबिगत गति रहेत, आवते न जावते । एवं पंच तत पचीस प्रकीरति का भेद बोलिये। निरंजन देवता । पारणों का जामन । अगनि का पुट५ । पवन का १.(क), (ङ) में आगे दिये हुए भार्या और गुण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर नहीं हैं । गुण संबंधी उतर के आगे (घ) में यह भी लिखा है-"स्वामी पांचतत्त का वरण स्वाद सुभाव भी कहया । मेह द्वार अहार निहार व्यौहार भी कह्या" । २. (क) () में 'ॐ ॐउतपदिते' नहीं है, केवल (घ) में है। ३. (क) (6) में ॐ । प्रसंतते' नहीं है, केवल (घ) में है। ४. (घ) में 'का जामन' के स्थान पर जिंद' है । ५. (घ) में 'का पुटर के स्थान पर 'पट' है।