पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ज्ञान द्वीप बोध [क]-(२) (गोरष दत्त गुष्टि) गोरष-स्वामी कि तुम्हें ब्रह्मा कि ब्रह्मचारी, कि तुम्हें बांभण पुस्तक कि दंडधारी। कि तुम्हें जोगी कि जोग जुगता, कौंण प्रसाद रमो छछंद मुक्ता ॥१॥ दत्ताजेय-अवधू न अम्हें ब्रह्मा न ब्रह्मचारी, न अन्हें ब्राह्मण पुस्तक न हंडधारी। न अम्हें जोगी न जोग जुगता, आप प्रसादै रमौं छछद मुकता ॥२॥ गो-आपा मेटणां सतगुर थापणां, अनपरचे जग पाया। गोरष कहै सुणौ हो स्वामी, तुम्हें कौंण कहां थें पाया ॥३॥ द-अवधू होता गुपत गुपत थें प्रगट, रहता पुरुष की छाया । दत्त कहै सुणौ हो गोरष, हम गैवी पुरस गैब थें आया ॥४॥ गो०-स्वामी अजर व्यंद असाध वाई, अप्रवल विघ्न की माया। गोरष कहै सुणौ.हो दत्तात्रये, क्धू सीमति जल व्यंद की काया ॥५ द०-अवधू कन्द्रप न बाई अप्रवल न माया, आकार निराकार सूषिम निकाया। जलो न जलविबो दरपनो न छाया, दत्त न गोरष काया न माया ॥६॥ १. (क) किंतु । २. (घ) पोया । ३. (घ) दापो।