पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२८

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सब , गोरख-बानी] अह निसि' मन लै२ उनमन रहै, गम की छांडि अगम की कहै। छाडै आसा रहे निरास, कहै ब्रह्मा हूँ" ताका दास ॥१६॥ अरधै जाता उरधै धरै, काम दगध जे जोगी करै। तजै अल्यंगन काटै माया, ताका बिसनु पषालै पाया ॥१७॥ अजपा जपै सुनि' मन धरै, पांचौ ११ इंद्री१२ निग्रह ३ करै। ब्रह्म अगनि मैं होमै काया, तास महादेव बंदै पाया ॥१८॥ धन जोवन की करै न१४ आस, चित्त न राय कामनि ६ पास । नाद बिंद१७ जाकै घटि जरै, ताकी सेवा पारबती करै ॥१९॥ जो रात दिन पहिर्मुख मन को उन्मनावस्था में लीन किये रहता है, गम्य जगत् को पात छोड़ कर अगम्य श्राध्यात्मिक क्षेत्र की घातें करता है, प्राथाओं को छोद देता है, कोई आशा नहीं रखता, वह ब्रह्मा से भी बढ़ कर है, ब्रह्मा उसका दासत्व स्वीकार करता । १६॥ नीचे की ओर गति वाले रेतस् (शुक्र) को उपर की ओर प्रेरित करे, ऐसा जाचरेता होकर जो काम को मस्म कर देता है, कामिनी का श्रालिंगन छोड़ देता है और माया को काट डालता है, ( जिसके चरण पखारने से गंगा निकली है, वह ) विष्णु भी उस जोगी के चरण धोता है। उरध= अर्व का अपभ्रंश । इसी के अनुकरण पर 'अधा' से परध बना है। ॥१७॥ जो प्रजपा का जाप करता है, ब्रह्मरंध्र शून्य) में मन को लीन किये रहता है, पाँचों इन्द्रियों को अपने वश में रखता है, ब्रह्मानुभूति रूप अग्नि में अपने भौतिक अस्तित्व (काया) की आहुति कर गलता है, ( योगीश्वर ) महादेव भी उसके चरणों की वंदना करता है ॥१८॥ जो धन यौवन की श्राशा नहीं करता, स्त्री में मन नहीं लगाता, जिसके शरीर में नाद और बिंदु जीर्ण होते रहते हैं, पावंती भी उसकी सेवा करती है ॥१६॥ १. (ख) अहि निसि, (घ) अहनिस । २. (क) ले, (घ) जे। ३. (ग) छोड़ि । ४. (ग) छोडै । ५. (ख) हु; (ग) मै; (घ) मैं । ६. (ख) जौ । ७.(ख) अलिंगण (अलिगण ?) (ग) श्रालिंगन (आलिमन ? ) ८. (ख) त्यागै, (घ) छाडै । ६ (क) विष्नु; (ख) वीसन; (घ) विष्न । १०. (ख); (घ) सुनि, (ग) सून्य । ११. (ख) पाँचु; (ग) पाच; (घ) पाचूँ । १२. (ख), (घ) यंद्री। १३. (ख) न्यग्रह । १४. (ख), (ग) न करै । १५. (क), (ख), (ग), (घ) चित । १६. (ख), (घ) कामाणो । १७. (ख), (ग)-व्यंद।