पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२९

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US - [ गोरख-बानी बालै जोबनि जे नर जती, काल दुकाला ते नर सती। फुरत भोजन अलप अहारी, नाथ कहै सो" काया हमारी ॥२०॥ सबदहिं ताला सेबदहिं कूँची, सबदहि सबद जगाया। सवदहिं सबद सूं परचा हूआ, सबदहिं सबद समाया ॥२१॥ पंथ बिन चलिबा अगनि बिन जलिबा, अनिल' तृषा जहटिया१२। ससंवेदश्री(गुर)गोरष(नाथ)कहिया१४बूझिल्यौ१५पंडित१६पढ़िया॥२२ घाल्यावस्था और यौवन में जो व्यक्ति संयम के द्वारा इन्द्रिय-निग्रह करते हैं वे समय-असमय में सर्वदा अपने सत पर स्थिर रह सकते हैं । वे फुरती से भोजन करते हैं, कम खाते हैं, नाथ कहते हैं कि वे हमारे शरीर हैं। उनमें और सुम में कुछ अंतर नहीं ॥२०॥ शब्द हो ताला है, वही परमतत्व को बन्द किये रहता है । शब्द की धारा ही सूक्षम परमतत्व पर स्थूल आवरणों को बाँध कर सृष्टि का निर्माण करती है। इसलिए मूल अधिष्ठान तक पहुँचने के लिए शब्द की धारा पकड़ कर पापिस पाना पड़ता है, इसीलिए वही कुंजी भी है, जिससे ताला खोला जाता है। गुरु के शब्द में भी परम तत्त्व रहता है जो उसी के मनन-चिंतन से खुलता है । अंतरी शब्द (नाद ) का भागरण इसी शब्द (गुरु उपदेश) के कारण होता है। जब इस प्रकार स्थूल शब्द के द्वारा सूचम शब्द से परिचय हो जाता है तव स्थूल शब्द सूचम मूल शब्द में समा जाता है ॥२१॥ मार्ग के विना चलना, अग्नि के बिना जलना, वायु से प्यास का बुझना १. (ख) (ग) जोवन । २. (ख) दुकाले । ३. (ख) जे; (ग) ये । ४. (ग) (घ) फुरसै, (ख)फुरते । ५. (ग) सै। (घ) ते । ६. (ख) में अंतिम शब्दी यों श्रारंभ होती है सबदहि कुची सबदहि ताला"संस्कृत अनुवाद में भी यही क्रम है। (क) सबदहि सवद जब कूँची । ७. (क) जब; (ख) में नहीं; (ग) स्यूँ । ८.(ख)(ग), (घ) में 'सबदहि' से पहले तब। ६. (ख) वीणि; (घ) बिण । १०. सब प्रतियों में 'पुलिब' पाठ है । संस्कृत अनुवाद 'गमनं' किया गया है । सम्भवतः किसी पुरानी प्रति में से 'चलिवा' पुलिया के रूप में गलत नकल हो गया और वही पाठ चल पड़ा । ११. संस्कृत अनुवाद में इसका अर्थ 'बिना जलं' किया गया है, जिसके लिए चारों में से किसी प्रति में भी आधार नहीं है । १२. (ख) न्युदटीया (वा)।१३. (स),(ग), (घ) सुसमवेद । (१४. (ख),(ग),(घ) कथिया १५ (स) वोल्योरे; (ग), (घ) पूछिलै । १६. (ख) प्यंडता; (घ) पिंडत । . ,