पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२८३

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[क]-(५) दया बोध आओ सिद्धौ पोज बताऊं। आदिनाथ का पूत कहाऊ' । जोगारंभ की याही बांणी। सब घटि नाथ एकैर करि जांणी ॥१॥ जोगारभ हिरदा मैं मांडौ । दया उपावो जूती छादौ ॥ नांगां पांवा जे नर मुवां । ताका कारज पहली हूवा ॥२॥ आप सवारथ घालौ धूई । ता मैं चींटी केती मूई ।। तजो कहरि नजरि भभूत, वटवा फाउड़ि जिनि लेउ हाथ। एता आरम परिहरौ सिद्धौ यों कथंत जती गोरष नाथ ॥३॥ माघ चलंता धरणि दिष्टि लागै। ताकै१४कांटा कदैन लागै॥ पहली प्रारंभ हम भी करते । जीवजंतु१७ बहोतेरे१८ हतते ॥४॥ आरंभ तजौ गूदड़ी चलावी निरति सुरति अविनासी सू लावौ१९॥ भविनासी पुरुष२० का लागा रंग। रिद्धि सिद्धि ताही के संग ||५|| रिधि छाइयां सिधि पाइए, सिधि संकर कै हाथि२२ ।। छांदी सकल अकल कूध्यावी, यो कथंत जती गोरप नाथ ॥६॥ १. (घ) सिघो । २. (प) एक । ३. (घ) मैं । ४. (प) उपावो । ५. (6) पावो । ६. (घ) स्वारय; () पहिले । ७. (6) घाले । ८. () केती। ६. (प) कहैरि । १०. (घ) भभूति । ११. (घ) फाहहि । १२. (प) त्यो हायि । १३.(घ) दिप्टि जौ । १४. (घ) तो ता; (8) ताके । १५. (घ) कोई । ११. (१) पहले 'लागे लिखा था, फिर हरवाल लगाकर 'मागे' किया गया है ।१७. (6)ीवजंतु । १८. (७) बहुतेरे । १९. (5) चलो.."मी लामो । २०:(प) पुरस । २१. (५) "रिधि सिधि" है । २२. (८) शंकर के हाप ।