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गोरख-बानी] २४३ करतार तजिहूँ साकत हूँ न जाई । मन मृग राषिले बाड़ी न पाई। आकास बाड़ी पाताल कूआ। भरि भरि सींचता जो सिद्ध हुमा। अवधू अमर कोट काया अलेष दरवाजा। ग्यान गढ़ आसण प्राण भयो राजा॥ अवधू फेरि ले तो तत सार बुद्धि सांच। नहीं तो लोहा गदि ले तो क'चन नहीं वो कांध ॥ अवधू सिद्धा पाया साधक पाया, ते उतरिया पार' कथत नती गोरषनाथ नेते न जानत विचार,ते जति भये अंगार ॥३॥