पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२८७

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२४२ [गोरख-बानी सहज मरे अष्ट पग धरणां । ग्यांन खड़ग लै काल संहरणां ॥ अमर कोट काया एक ब्रह्म मध्ये । जीत ले जमपुरी रापि ले कंधे।। यातमा झूझजती गोरषनाथ किया ।संसार विणास्या आपण जिया ॥१॥ । । झूमंति सुरा बूमति पूरा अमर पद ध्यावंत गुरु ग्यान बंका। दल को मारि जंजाल को जोति ले, निर्भय होइ मेटि ले मन की संका। अभूमि भूमिलै पैस दरिया । मूल विन वृष अमीरस भरिया ॥ तन मन लेकर शिवपुर मेला । ग्यांन गुरु जोगी संसार चेला। मन राइ चंचल थांन थिति नाहीं। वांधि ले पंच भूत आत्मां माहीं । अलप अकथ चल्छु बिन सूमिया । सिद्ध का मारग साधकै बूझिया। उलटि यंत्र धरै सिपर पासण करे, कोटि सर छूटतां घाब नाहीं।। सिलहट मध्ये कांवरू लीतले, निर्मल धुनि गगन माहीं। मन की भ्रमना तब छुटत होइ जोगींद्र, जच विचारंत निहसब्द को बाणी॥ नैण के दांता सार धरिपीसिवा, तब योग पद दुर्लभ सत्य करि जाणी। उलटि गंगा चलै घरणि ऊपर मिलै, नीर मैं पैसि करि अनि जालै । घटहिं में पैसि कर प पानी भरै, तद पाइ परि पुरुषा श्राप उजाले। ग्वान के प्रगटे श्रीस्यंभूनाथ पाया [अकल अकथ जती गोरपनाथ ध्याया||२|| सो - मूल्या भूल्या बहुरि चेतना । संसा के लोहे पापा न रेतना। मेष कजि भ्रम तजि रापि सत्य सोई । तत विचारतां देवता होई ।। पापा सोधी ब्रह्म निरोधो सहज पलटो जोती। काया के भीतर मणि माणिक निपजे, तहां धुनि धुनि दर मोती ।। अरध उत्ध संपुष्टि करीजै। संपणि नान्न धमी स पीजै । पंढ मंडल तई नाद मरीले । हरि श्रामण तह भगत करीले । अलंप मंदिर नई शिव शलि निवामा । सहज सुन्न भगा प्रकामा। राहां चंदविना चांद मागन बिना उजाला कामदन कृत से शला॥