पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गोरख-मानी] वेद पुरान पढ़े चित लाइ । विद्या ब्रह्म कंध थिरि थाइ। मछिंद्र प्रसादै जती गोरष कहै । सप्त वार कोई विरला लहै ।। आदित बांध्यां सोम श्रवण, मंगल मुष परवाण । बुध हिरदै वृस्पति नाभी, सुक्र ते इंद्री जाण ॥ शनि गुदा वाय राह ते मंन, केत ते नासिका रहे। सप्त वार नवग्रह देवता काया भौतरि श्री गोरष कहै ।। [ख]-(२) बत एक बरत गुरु मुषि लहै मेवा । दूजा व्रत संतोप सेवा । ताजा ब्रत दया चित रहै। चौथा व्रत ब्रह्म को लहै ॥ १॥ एक प्रत जो इंद्री गहै । दूजा व्रत राम मुष कहै। तीला प्रत मिथ्या नहि भाषै। चौथा व्रत दया मनि रापै ।।२।। सांचो व्रत कहे ये चारी। जिस भाव सो लेहु बिचारी। और सकल जग का न्यौहारा । तासौं कदे न पावै पारा ।।३।। सील संतोप सुमिरण व्रत करै। ताकै भुषो कारण कहि मरै। मन इडियन कौं अस्थिर राषै। राम रसाइन रसनां चापै ॥४॥ इन भ्रत समि व्रत नहीं कोई । वेद अरु नाद कहै मत दोई। तार्थे र व्रत हिरदय धारौ । गुरु साधों की साप विचारो ॥ ५॥ सील प्रत संकोष व्रत, विमा दया ब्रत दांन । ये पांचौ त जो गहै, सोई साध सुजान ॥ ६ ॥ इन व्रता का जाणे मेव । श्राप करता श्राप देव । मन पवना लै उनमन रहै । एने व्रत गोरषनाथ जी कहै ॥ ७॥ । .. -- अत्त-फेवन (1) के प्रापार पर