२४६ [गोरख-बानी [ख]-(३) पंच अग्नि -- मूल अगनि का रेचक नांव । सोषि लेह रक्त पीत पर प्रांव । पेट पूठ दोऊ सम रहै । तौ मूल अगनि जती गोरष कहै । मुयंगम अगनि का भुयंगम नाम । तजिबा मिछया भोजन ग्रांम । मुल की मुस अमीरस थीर । विसकू कहिए हो सिधो पवन का सरीर । ब्रह्म अगनि ब्रह्म नाली धरि ले जाण । उलटंत पवनां रवि ससि गिगन समांन । ब्रह्म अगनि मधे सीमिवा कपूर । तिस कू देषि मन जायबा दूर। सिव धरि सकति अहैनिस रहै। ब्रह्म अगनि जती गोरष कहै । काल अगनि तीनि भवन प्रवांनी । उलटत पवनां मोषत पानी। पाया पीया पाप होय रहै । काल अगनि जती गोरप कहै। रुद्र अगनि का बाटिका नाम । सोपि लेव होट कंठ पेठ पूठि नव ठांम।। उलटंत केस पलटत चांम । तिसकू कहियै हो सिधो त्राटिका नाम ।। रुद्र रेवंती संजमे पिवंती । जोग जुगति करि साधंत जोगी। पंच अगनि भरि पूर रहै । सिघ संकेत श्री गोरप कहै। पूरिको पीवत वायु कुंभको काया सोधनं । रेचको तत विकार नाटिको आवागवण विवरजतं । सिध का मारग कोई साधू जाण । पंच अगनि श्री गोरपनाथ वाण पांची अगनि संपूरण भई। अनंत सिधां मधे जती गोरप कही। इति श्री पंच अगनि पटते सुणंते कथंते करते पापे नह लिपंते पुने न हारते । नमो सिवाय ॐनमो सियाव । गुरु मछंद्रनाथ के पादुका नमन्तुते । पचं अग्नि और भागे के सय अंश (प) के आधार पर
पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२९१
दिखावट