पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२९६

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378 मोरख-बानी] २४६ सिचि आई होय तो सतगमु प्रसाद ते त्यागेसोई जोगेश्वर सोई ब्रह्म ग्यांनी । बल अपार जती गोरपनाथ समझो । यती चौबीस सिधि त्यागे । सोई परम ज्योति कू पावै। [ख]-(६) बतीस लछन . . ग्यांन पारछया-निरलोभी, निहचल, निरवासीक, निहिसवद। विचार पारछया-निरमोही, निरबंध, निसंक, निरबांन । बमेक पारछया-सरवंगी, सावधान, सति,सारमाही। संतोष पारछया-अजाचीक, अबांछीक, अमांनीक, अस्थिर । निरवल पारछया-निहितरंग, निहपरपंच, निरदु'दी, निरलोप । सहज पारछया-सुमती, सुहृदी, सीतल, सुषदाई। सील पारछन्था-सुचि, संजम, सति, प्रोता। सुनि पारछया-ज्यौ, लषि, ध्यान, समाधि । एती अष्टांग जोग पारछथा, भगति का लछिन । सिधां पाई साधिका पाई, जे जन उतरे पार ।। [ख]-(७) श्रष्ट चक्र गोरप देव अष्ट चक्र बोलिए घट भीतर । ते कोण कौण बोलिए। अवधू प्रथमें श्राधार चक्र बोलिए गुदा अस्थांने, चत्र दल कंवल, (च) में इसका नाम 'प्रष्ट परिछप है।