, 1 दुःख की [गोरख-बानी बास सहेती' सब जग बास्या, स्वाद सहेता मीठा । साच कहूँ तो सतगुर मान रूप सहेता' दीठा ॥२५॥ मरौ वे जोगी मरौ, मरण है मीठा । तिस मरणीं" मरौ, जिस मरणीं गोरष मरि दीठा ॥२६॥ (परन्तु यदि यह बात मैं किसी से कहूँ तो) कौन मेरा विश्वास कर सकता है। (क्योंकि इन तत्वों के साथ जिन गुणों और क्रियाओं का सम्बन्ध जन साधारण सामान्यतया देखा करते हैं, उनको मेरे कथन में विरोध देख पड़ेगा ॥२४॥ ( ब्रह्म को ) सुगंधि से सारा जगत सुगंधित हैं। वह जगत में सुगंधि के समान व्याप्त है। ) उसके स्वाद से सारा जगत मीठा है। जिसको ब्रह्मानन्द का प्रास्वाद मिल जाता है उसके लिए संसार के प्रात्यतिक कटुता मिट जाती है, और जगत आनन्दमय (मीठा ) हो जाता है। (क्योंकि समस्त जगत में उसे) उसी का रूप दिखाई देता है। ( उसी के से जगत सुन्दर है।) इस सत्य का विश्वास केवल सद्गुरु को हो सकता है। (जिसे ब्रह्मानुभव नहीं वह इस पर विश्वास कैसे कर सकता है ? ) ॥२५॥ हे जोगी मरो, मरना मोठा होता है। किन्तु वह मौत मरो जिस मौत से मर कर गोरखनाथ ने परमतत्त्व के दर्शन किये । ( यह मरना सामान्य मृत्यु नहीं है, उससे भौतिक अस्तित्व का अन्त नहीं समझना चाहिए। योग मार्ग में तो विश्वास यह चला आता है कि योगी कभी मरता नहीं। इसलिए यह मरना जीवन्मृत्यु है। इसी का दूसरा नाम जीवन्मुक्ति है । इसमें स्वार्थी अर्थ में मृत्यु समझना चाहिए । भौतिक भयं में तो व्यक्ति के जीवन का अन्त ही सा हो जाता है अब यह अध्यात्मिक जीवन में परमार्थ के लिए जीता है। परमार्थ और परोपकार एक ही चीज नहीं। परन्तु परमार्थी जीवन परोपकार में भी अभिव्यक्त होता है ) ॥२६॥ १. (ख), (ग), सहतीसहंता । २. (घ) मीठा । ३. (ग), (घ) में 'रूप' के पहले 'मैं' है। ४. (क) जिस"तिस । ५. ( ग ), (घ) करणी ६. (घ) (क), (ख) श्री गोरपनाथ ; (घ) जती गोरखनाय । ८. (क) फरणी। ७. में नहीं है।
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