पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/३०

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गोरख-बानी) -- गगन' मँडल मैं ऊंचा कूबा तहां अमृत का बासा। सगुरा होइ सु भरि भरि पीवै निगुरा जाइ पियासा ॥२३॥ गगने न गोपंत५ तेजे न सोपंत पवने न पेलत बाई । मही भारे न भाजत उदके न डूबन्त कहौ तौ को पतियाई१२॥२४॥ (उगा जाना, जटना)यह केवल अनुभव से जानने के योग्य अपना अनुभव- ज्ञान गुरु गोरखनाथ ने कहा है, हे पढ़े पंडितो इसको समझो। ससंवेद- स्वसंवेध । संस्कृत अनुवाद में इसका अनुवाद 'सूक्ष्म वेद' किया गया है, जिसका अर्थ सूचम ज्ञान होगा परन्तु पदि पाठ सुषमवेद अथवा सुछम वेद होता, तभी यह अर्थ स्वीकार किया जा सकता ॥२२॥ श्राकाश मंडल (शून्य अथवा ग्रहमरंध्र) में एक औंधे मुंह का कुंआ है जिस में अमृत का वास है। जिसने अच्छे गुरु की शरण ली है वही उस में से भर-भर कर अमृत पी सकता है। (क्योंकि उसे पीने का उपाय गुरु ही बता सकता है ) जिसने किसी सच्छे गुरु को धारण नहीं किया वह इस अमृत का पान नहीं कर सकता, प्यासा ही रह जाता है ॥२३॥ (प्रारम-तत्त्व का अनुभव प्राप्त कर लेने पर जान परता है कि उसे ) न तो आकाश (पञ्च भूतो में से एक) गुप्त कर सकता है, न अग्नि सुखा सकती है, ग हवा इधर उधर झोंके से उदा (प्रेरित कर ) सकती है, न पृथ्वी का भार तोड़ (विभक कर) सकता है, न पानी डवा सकता १. (ख) गीगनि । २. (क) औंधा; (ख) अधा; (ग) श्रोधा । ३. (ग) अम्नत; (घ) यंम्रत; (ख) में मेरा लिपि कर्ता पहले दो अक्षरों को पढ़ नहीं सका । ४. (ख), (ग), (घ) सुगरा । ५. (क) गोस्तं; (ख) गोसत; (ग) गोसतं । 'स के ऊपर भी अनुस्वार रक्खा गया था जो पीछे लाल स्याही से काट दिया गया है । सम्भवतः पहले प्रतिलिपिकार ने 'गोवंत लिखा था । (घ) गोसंत । सम्भवतः ये सब रूप गोपंत' अथवा 'गोप्त' की गलत नकलें हैं । ६. (ख) तेज । ७. (ख) सोसंत । ८. (क) पेलति । (ग) लेपंत । ६. (ख) में 'उदके न बुडतः पहले है । १० (ख) बुडंत । ११. (ख) कहू (हु) (ग), (घ) कहूं । १२. (घ) पतिबाई; (ख ) पतीयाई (पतीपाई ?); (ग) पतियाह। है