पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/३३

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८ ९ १० १२ १३ १२ [ गोरख-बानी स्वामी बन पंडि जाउ तो षुध्या व्यापै3 नग्री जाउत माया । भरि भरि पाउत बिंद बियापै"क्योंसीमति जल व्यंद की काया ॥३०॥ धाये न पाइवा भूषे न मरिबा अहनिसि लेबा ब्रह्म अगनि का भेवं । हठ न करिबा पड़था१४ न रहिबा यूँ बोल्या गोरष देव१५ ॥३१॥ थोड़ा बोलै थोड़ा पाइ१६ तिस१७ घटि पवनां रहै समाइ१८ ॥ गगन ९ मंडल में अनहद बाजै प्यंड२० पड़े तो सतगुर लाजै ॥३२॥ यदि चित्त स्थिर है और काम-क्रोध अहंकार का निवारण हो गया है तो सब देशान्तर हो गये । क्योंकि निवृत्ति के ही अर्थ देशान्तर किया जाता है, जो चित्त की स्थिरता से निष्पन्न हो जाता है। चीया=चित्त, चीन, चीय ॥२६॥ हे स्वामी, जो वन खंट जाता हूँ तो नुधा व्यापती है, भूख सताती है, नगर में जाता हूँ तो माया आकृष्ट करती है, और भर भर कर खाता हूँ तो शुक्र के पढ़ने से काम-वासना सताती है। जल-बूंद (शुक्र) से निर्मित इस शरीर को किस प्रकार सिद्ध बनायें, समत्वावस्था में लायें ? ॥३०॥ भोजन पर टूट नहीं पढ़ना चाहिए (अधिक नहीं खाना चाहिए। ), न भूखे ही मरना चाहिए | रात दिन ब्रह्माग्नि को ग्रहण करना चाहिए । शरीर के साथ हउ नहीं करना चाहिए और न पड़ा ही रहना चाहिए ॥३॥ जो थोदा बोलता और थोड़ा खाता है, उसके शरीर में पवन समाया 1(जिससे ) भाकाश मंडल (ब्रह्मरंध्र) में अनाहत नाद सुनायी देता है। इसलिए, अमरतनव प्राप्त करने का साधन हमारे ही पास होने पर भी) यदि यह शरीर-पात हो जाय तो सद्गुरु के लिए लज्जा की बात है ॥३२॥ १. (ख), (घ) 'स्वामी' के अागे 'जी' । २. (ग), (घ) रहूँ । ३. (ग) में दूसरा और तीसरा चरण नहीं है। ४. (ख) नगरी। ५. (ख), (घ) कंद्रप व्याप । ६. (ख), (ग), (घ) सीझत । सीमंत के बाद सब प्रतियों में गुरु गोरष नाया है । ७. (क), (ख) व्यंग, (घ) विंव । ८. (ख) अवधू धावे । ६. (ख) (घ) पायवा। १०. (ग), (घ) मूपा । ११. (ग) (घ) रहिवा । १२. (क) अहनिस, (ख) अहिनिसि । १३. (ख) लेइवा। १४. (क) पड़े, (ख) पड़ि। १५. (घ) रावं ! १६. (ख), (घ) पाय; (ग) चोरा पाई । १७. (ख), (ग), (प) वा । १८. (ख), (घ) समाय; (ग) समाई । १६, (ख), (घ) गिगनि, (ग) गगनि । २०. (घ) पिंट। . है ,