पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/४०

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गोरख-बानी] गिरही सो जो गिरहै' काया। अभि अंतरि की त्यागै माया । सहज सील का धरै सरीर। सो गिरही गंगार का नीर ॥४५|| अमरा निरमल पाप न पुंनि । सत रज विवरजित सुनि । सोहं हंसा सुमिरै सबद । तिहि परमारथ अनंत सिध ॥४६॥ पाषंडी सो काया पपालै । उलटि पवन अगनि प्रजालैः । व्यंद१० न देई सुपनैं जाण । सो पापंडी कहिए तत्त समान ॥४॥ मनवां जोगी काया मढी। पंच तत्त ले कथा गढी। षिमा षड़ासण१२ग्यान अधारी १३।सुमति पावड़ी डंड विचारी13 १॥४८॥ योगी गृही ( घरबारी, गृहस्थ) नहीं। यदि वह गृही है तो (श्लेष से) ऐसा जो अपने शरीर को पकये हुए, पश में किये हुए रहता है । शंत:- करण से माया को त्याग देता है। इतना शीलवान है कि शरीर ही मानो स्वाभाविक शील का बना हुआ है। वह गृही गंगाजल है, शुद्ध है, औरों को भी शुद्ध करने वाला है, देवाधिदेव शिव जी भी उसका श्रादर करते हैं ॥४२॥ जो (अंतर्जीन ) मुनि, सत्-रजस्-तमस्, इस त्रैगुण्य से विवर्जित है, पाप-पुण्य से रहित है, निर्मल है, श्रमर है, "सोहं हंसः" इस श्राभ्यंतर शब्द का स्मरण करता है अर्थात् अजपाजाप जपता रहता है, उसे अनन्त परमार्थ सिद्ध हो जाता है ॥४६॥ (योगी पापंथी नहीं है) यदि है तो वह पापंडी जो योग को क्रियाओं से काया का प्रक्षालन करता है, उसे निर्मल बनाता है। पवन को उलटकर (प्राणायाम के द्वारा) योगाग्नि को प्रज्वलित करता है, कुण्डलिनी को जगाता है, विंदु को स्वप्न में भी स्खलित नहीं होने देता। ऐसे ही पापंटी को तत्व में समाया हुआ समझना चाहिए ॥४७॥ शरीर रूपी मढ़ी में मन रूपी जोगी रहता है जिसने अपने लिए पांच १. (ख) ग्रहै, (क) में गृही, गृहै इत्यादि। २. (ख) चरण, (ग) चरणों (घ) चरणां। ३. (क) अमुरा, (ख), (घ) अमर । ४. (ग) सोहूँ। ५. (घ) सुमिरै । ६, (क) शन्द । ७. (ग) तिस, (घ) जिस। ८, (क), (ख) उलट्या । ९. (क) उजालै, (ग), (घ) परजालै । १०. (ख) सुपि. इससे पहले है, (घ) बिंद। ११. (ख) झरना, (घ) जान। १२. (ग) कड़ासन । १३. (ग) अधारा, विचार; (घ), अधार.. विचार ।