१६ , ४२॥ [गोरख-बानी दपिणी जोगी रंगा चंगा, पूरबीर जोगी बादी। पछमी जोगो बाला भोला, सिध जोगी उतराधी ॥४॥ अवधू पूरव दिसि व्याधिका रोग, पछिम दिसि मितु का सोग । दछिण" दिस माया का भोग, उत्यर दिसि सिध का जोग ॥४२॥ धूतारा ते जे धूतै आप, भिष्या भोजन, नहीं संताप । अहूठ१० पटण मैं भिष्या करै। ते अवधू सिव पुरी११ संचरै ॥४३॥ घरवारी सो घर की जाणै। बाहरि २ जाता भीतरि आणै । सरव निरंतरि काटैमाया। सो घरबारी कहिए निरञ्जन की काया॥४४॥ योग सिद्धि के लिए उत्तराखंड का महत्त्व ४१, ४२ इन दो सबदियों में कहा गया है। स्वयं गोरखनाथ ने हिमालय की कंदराओं में योग साधन किया था, ऐसा जान पड़ता है ॥४३, (योगी धूतं नहीं होता ) अगर वह धूर्त है तो ऐसा धूतं कि पापा (अहंकार) को ठग लेता है। भिक्षा मांग कर वह उसे कोई संताप नहीं होता। साढ़े तीन (अहुठ) हाथ का शरीर हो यह नगर है जिस में घूम फिर कर वह भिक्षा माँगता है । हे अवधूत ! ऐसे धूतं शिवलोक ( ब्रह्मरंध्र ) में संचरण करते हैं ॥४॥ (योगी घरवारी नहीं होता, यदि वह घरवारी है तो ऐसा कि) जिसे अपने घर (काया ) का पूरा ज्ञान है ! अपने घर की जो वस्तु बाहर ना रही हो, नष्ट हो रही हो (श्वास और शुझ) उसको वह भीतर ले जाता है, उसको रक्षा करता है, वह सब से अमेय भाव रखते हुए निर्लिप्त रहता है भौर माया का खंदन कर देता है। ऐसे घरवारी को माया रहित निरंजन ब्रह्म का शरीर, अर्थात् प्रहम-तुल्य समझना चाहिए ॥४॥ १. (क) दछिणी; (ख), (घ) दिपणी। २. (ख)(ग)(घ) पूरव पछिम । ३. (ग), (घ) उत्तर दिसा । ४. (ख) मन (मरन); (ग) (घ) मृत । ५. (ख) दिपण। ६. (घ) सिधौ । ७. (ख), (ग), (घ) में 'ते' नहीं। ८. (क) भिक्षा । ६. (ग) जोजन । १०. (ग) अहुँट । ११. (ख) पुरी । संभवतः अधिक 'स' गलती से आ गया है । १२. (ग) वादिर । १३. (घ) में प्रतिलिपिकार 'तरि' लिखना भूल गया था। कोर पर 'रित' लिख दिया। भोजन करता है
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