गोरख-बानी] २१. उठंत पवनां रवी तपंगा बैठत पवनां चंदं । दहूँ निरंतरि जोगी विलंबै, विंद बसै तहाँ ज्यद ॥५७|| केता आवै केता जाई3, केता मांगै केता खाई, केता रूप निरप तलि रहै, गोरष अनभै कासौं कहै ॥५॥ पढि देखि पंडिता रहि देघि सारं, अपणी करणी उतरिबा पारं। वदंत गोरषनाथ कहि धू सापी, घटि घटि दीपक (बलै) पणि पसू न (पेषे) आंधी१० ॥५९॥ गरम पिंगळा (सूर्य) नाड़ी में पवन का संचार होता है, शीतल ( इड़ा अथवा चन्द्र ) नाड़ी में वीर्य का निवास है, इनकी गति को कोई विरला ही जोगी जानता है ॥५॥ सूर्य नाली में चलता हुथा पवन बहुत तीव्र गति से चलता है । जब चन्द्र नाड़ी में उसकी गति होती है तब वह बैठ (थम ) सा जाता है। जब श्वास बाहर निकलता है तब सूर्य नाड़ी चलती है, और जय भीतर प्रवेश करता है तब चन्द्र नाड़ी। योगी दोनों से अलग सुपुम्या नाड़ी की शरण में आश्रय लेता है। क्योंकि जहाँ विन्दु का निवास है वहीं श्रमर-जीवन तत्व (जिन्दा) का भी ॥५७॥ (साधक बाहरी क्रियाओं को योग समझे हुए हैं। कितने (जंगम) बराबर आते ही जाते रहते हैं। कितनों ने मांगना-खाना ही योग समझ रखा है। कितनों ने बस्ती से अलग पेड़ों के नीचे रहना हो। (सब तो इस प्रकार बाहरी बातों में पड़े हुए हैं ) गोरख अभय ज्ञान कहे तो किस से ? ५६ ॥ हे पंडित, जिसको तुमने पढ़कर देखा है, उस सार-ज्ञान को रहकर भी देखो। (केवल पढ़ना ही काफी नहीं है । सोखे को साधना भी चाहिए।) पार उतरना कोरे ज्ञान से नहीं अपनी करनी ( कृत्यों ) से ही संभव होता है। गोरखनाथ कहते हैं कि मैं किसको साक्षी हूँ कि घट-घट में ब्रह्म की १. (ख) चंद "व्यंद, (घ) चंद "जिंद । २. (क) बिलंवे, (ख) विलंब्या । ३. (घ) नाय । ४. (ग) (घ) रूप । ५. (ख) (ग) (घ) अणभै । ६. (ख) स्यू, (घ) सू', (ग) स्यौं । ७. (ख) पडिता। (ग) पठिता। (ख) पाणी, ८. (ख) दीपग । (ग) परि, (घ) पनि । ९. १०. (ख) अंषो ।
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