पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/४३

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२० [गोरख-बानी श्रमावस कै घरि मिलिमिलि चंदा, पूनिम' के घरि सूर। नाद के घरि व्यंदर गरजै, वाजंत अनहद तुर॥५४॥ उलटंत नाद पलटंत व्यंद, बाई के घरि चीन्हसि५ ज्यद । सुनि मंडल तहाँ नीझर झरिया, चंद सुरजि ले उनमनि धरिया ॥५५॥ अवधू प्रथम नाड़ी नाद झमकै, तेजंग१० नाड़ी पवनं । सीतंग नाड़ी व्यंदा१ का वासा, कोई जोगी जानत गवनं १२ ॥५६॥ होगा तय करोगों नादों के समान अनाहत नाद ममक उठेगा। और जब ब्रह्म का मूल प्रकाश (श्रादि किरण ) प्रकट होगा तब वायु बहत्तरों चन्द्रमाओं को सोख लेगी ॥१३॥ 'सहस्रार' में अमृतस्रावक चन्द्रमा स्थित है पर उसके प्रभाव से सामान्य- तया जीव वंचित रहता है, क्योंकि अमृत के स्राव को मूलाधार स्थित सूर्य सांस लेता है। चन्द्रमा के प्रभाव से यही वचित रहना 'श्रमावस' से अभिप्रेत है। जहाँ पहने अमावस यो, चन्द्रमा का प्रभाव नहीं था, वहाँ अब चन्द्रमा मिनिज चमकने लगा है, पूर्ण प्रभाववाला हो गया है। यही सूर्य-चंद्र- संयोग योग-साधनों का प्रधान उद्देश्य है। इससे नाव में विन्दु (शुक्र) समा गया है और अनाहत नाद की सुरी बजने लगी है।।५॥ चन्द्र और सूर्य के योग से जय उन्मनावस्या आती है तय ब्रह्मरंध्र (शून्य-मंडल ) में अमृत का निर्मर मरने लगता है । नाद उलट जाता है। नाद सूक्ष्म शब्द तस्व का झियमाण स्वरूप है जो क्रमशः स्थूल रूप में परिपत होता हुया सृष्टि का कारण होता है। उसका सृष्टि निर्मायक स्यूल स्यरूप अपने मूल स्रोत की ओर मुड़ जाता है। और नीचे उतरता हुमा विन्दु सार्वगामी हो जाता है और वायु में ही, जिसके ऊपर काल का प्रभाव बहुत दिगाई देता है, अमर तस्व (जिंदा) पहचाना नाता है ॥२६॥ हे प्रयत । यादि सूक्ष्म सुपुग्णा नादी में नाद की ममक होती है, १. (ग) पुन्यो, (प) पून्यू । २. (घ) विंद। ३. (ग), (घ) तब बाजे । ४. (क) उलरिति "मलेकित । ५. (ख) चीन्दंत; (ग) चीन्हिवा (घ) निगचा । ६. (म्ब) (घ) म्र, (ग) सूरन । ७. (ख) दोउ ले । ८. (ग), (घ) महा। ६. (ग) प्रपमे। १०. (ग), (घ) तेज की। ११. (घ) विंद । १२. (ग) में अन्तिम दो चरण टूट गये हैं। . 1