गोरख-वानी] pus दृष्टि' अग्रे दृष्टि लुकाइबा सुरति लुकाईबा कांन । नासिका अग्रे पवन लुकाइबा, तब रहि गया पद निरबांनं ॥५॥ अवधू मनसा हमारी गींद बोलिये', सुरति बोलिये १० चौगान ११ अनहद १२ ले ३ लिबा १४ लागा, तब गगन१५ भया मैदान १ ॥७६}} पंचतत्तले सिधा ८ मुडाया.९, तब भेटिलै निरंजन निराकारं। मन मस्त हस्ती मिलाइ२ अवधू, तब लुटिलै अपै२१ भंडारं ॥ ७७ ॥ शिशुपाल को काल अथवा शैतान मानना कुछ विरल है। यधपि इसमें संदेह नहीं कि उसके कृष्णविरोधी होने के कारण उसके प्रति यह भावना हो सकती है। पुटी नष्ट हुई। खुट्ट', टूटा हुअा-देशी, २, ७४ ॥ ७४ ।। (इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाओ रष्टि (चक्षरिदिय के श्रागे से रष्टि को (देखने की शक्ति को ) छिपानो, कान के आगे से श्रुति (सुनना), नाक के आगे से वायु को छिपाओ। ऐसा करने से फिर केवल- निर्वाण-पद शेष रह जाता है। इस में प्रत्याहार की आवश्यकता बतायी गयी है ) ॥ ७ ॥ हे अवधूत, मनसा हमारी गेंद है और सुरति (मन की उलटी गति अर्थात् श्रात्मस्मृति ) चौगान । अनहद को लेकर (घोड़ा बना कर) मैं खेजने लगा । इस प्रकार ब्रह्मरंध्र (गगन या शून्य ) (मेरे खेलने का) मैदान हो गया ।। ७६ ॥ जब सिद्धों ने पांच तत्वों के लेकर (ग्रहण कर, वश में कर) मुंडा लिया १. (ख) द्रिष्ट, (ग) (घ) दिष्ट । २. (ख) द्रष्ट (ग) (घ) दिस्ट । ३. (घ) लुकायबा; (ग) लुकाईबा । ४. (ख) कान"नरवाण; (ग)कानं "निरवाण (घ) बानां निरवानां । ५. (ग), (घ) लुकायबा । ६. (ख) रहेगा युहु । ७. (ग) हमारै। ८ (क) (ख), (ग) गीद । ६. (ग), (घ) बोलियै । १०. (क), (ख) देखो ९. (ग) भई। ११. (ग) चौगान' "मैदान (घ) चौगान "मैदान । १२. (ख), (ग), (घ) अनहद सबद । १३. (ग) में 'ले' नहीं है । १४. (ख) षेलणे, (ग) षेलने, (घ) पेलण। १५. (ख) गीगनि; गिगन । १६. (ख). (घ) पांच । १७. (क), (ख), (घ) तत; (ग) तत्व । १८. (ख ) सिमा (ग) सिधो। १६. (ख) मडीया । २०. (ख), (ग), (घ) मिलायलै । (ग) में 'मी' दीर्घ और इस शन्द के बाद 'अलै' लिखा गया है, स्पष्ट ही गलती से। २१. (ख) अलष ।
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