पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/४९

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२६ [गोरखवानी गोरप' कहै सुणहुरे' अवधू जग3 मैं ऐसे रहणां- ऑ५ देपिबा कां. सुणिया मुप थें ७ कळू न कहणां ।। ७२ ।। नाथ कहै तुम प्रापा रापो, हठ करि बाद न करणां । यहु जुग है कांटे की वाड़ी, देपि देषि पग धरणां ॥ ७३ ॥ गोरप कहे सुणे १० रे ११ सुसूपाल' १२ थें 13 डरिये। ले मुदिगरको सिर में मेलै तौयिनही पूटी मरिये ॥ ७४ ॥ अवधू समान निश्चल होता है और जब चलता है तो पवन की मुट्ठी बांध कर (वायु- घेग से ) जो लोगी सोता है वह जीते जी मृतक के समान है। और जो बहुत पोलता फिरता है उसे समझना चाहिए कि अभी बंधन मुक्त नहीं हुधा ॥७॥ योगियों के लिए गोरखनाय का उपदेश है कि इस दुनिया में तमाशबीन (साक्षी) की तरह रहना चाहिए। उस में लिप्त न होना चाहिए। देखता- मुनता तो सप कुछ रहे परन्तु स्वयं कुछ योले नहीं ; श्राप उस प्रपंच में न पदे ॥७२॥ नाथ का उपदेश है कि तुम अपने पापा की ( श्रात्मा ) रक्षा करो हठ पूर्व पाद (संटन-मंटन ) में न पदो। यह संसार कोटे के खेत की तरह है जिसमें पग पग पर काँटे चुभने का डर रहता है। इसलिए देख देख कर ढग रखना पाहिए ॥ ३०॥ गोरसनाय कहते है कि हे अवधूत ! शिशुपान (काल) से डरना चाहिए, मगर यह मुगदर को सिर पर मारे तो आयु के यिना समाप्त हुए ही (अकाल ही) भादमी मर खाय। १. नाय । २. (स) नुपी रे; (ग), (घ) नुणो रे । ३. (स), (ग), (प) गुग । ४. (१) अदिबीधि । ५. (ख) प्राण्या; (ग), (घ) अांध्यां । ६. (B) काना, (ग), (घ) कानां । ७. (स) ते, (ग) ते, (प) सू। ८. (ख) । ६. येवल (E) में। १०.(ग) मुग्णां । ११. (ग) ३। १२. (ख) मुग्धान, (ग) गूमान, (प) सपाल । १३ (स) स्यु', (ग) ते, (प) वं। १४. (ग) उटाय करि ! १५. (ग) मुदन (ग), (घ) मुदगर । १६. (स) दे (१) गो पाले गिर मैं' नहीं है, (ग) मेरे, (घ) मेल्ट, । १७. (ग) तव । १८. () मी नाइटी, (ग) विपदी फूटी, (प) विण पूटी दी। .