४३ .१७ १८ १५ २० १८ that ॥ १२०॥ गोरख-बानी] मूरिष सभा न बैसिबा' अवधूरे पंडित सौं न करिवा बादं । राजा संग्रामे झूझ न करवा हेलै न षोइबा नादं ॥ १२१ ॥ हिरदा का भाव हाथ मैं जाणिये यहु१० कलि आई षोटी। बदंत गोरष सुरें रे अवधू करवै होई सु निकसै टोटी ॥ १२० ॥ जल कै संजमि अटल अकास अन कै संजमि जोति प्रकास । पवनां संजमि लागै बंद व्यंद के संजमि थिरकै कंद ॥१२३।। शब्द का उच्चारण मात्र कर देने से मीठे स्वाद का अनुभव नहीं प्राप्त हो सकता, ऐसा अनुभवहीन व्यक्ति धोखे में पड़ा रह जाता है। उसको वास्त- विकता की पहचान नहीं होती। खाता तो वह होंग है किन्तु कहता है कपूर । गोरख कहता है कि यह सब झूठा अनुभव हे अवधूत, मूर्यो की सभा में नहीं बैठना चाहिए, पंडित से शास्त्रार्थ नहीं करना चाहिये ( उसका ज्ञानगर्व दूसरे प्रकार की मूर्खता है, वास्तविक ज्ञान उसे नहीं होता । अतएव शास्त्रार्थ में पड़ना व्यर्थ समय को नष्ट करना है। ) राजा से लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए । (राजा उस क्षेत्र में शूर नहीं है जिस क्षेत्र में साधक को शूर होना चाहिए । राजा के पास बाहुवल है किन्तु साधक के धारमबल होना चाहिए । इसलिए दोनों में स्पर्धा का भाव हो नहीं सकता।) लापरवाही से नाद को खोना नहीं चाहिए || १२१ ॥ यह कलि बुरा युग है। (इसमें लोगों के भाव अच्छे नहीं है, यह उनके कर्मो से पता चलता है। क्योंकि ) हृदय में जैसे माव होते हैं हाथ से वैसे ही काम भी होते हैं । गोरखनाथ कहते हैं कि हे अवधूत जो कुछ गदुवे में होगा, वही तो टोंटी से बाहर निकलेगा । करवै, करके (सं०), गडवे में ॥११२॥ जल के संयम से श्राकाश अटल होता है; ब्रह्मरंध्र में दृढ़ स्थिति होती है १. (ख) बैसाबा ( ? बैसीबा)। २. 'अवधू के पहले (ग) में 'र' और (घ) में 'रे' है । ३. (ख). स्यू; (ग) स्यौं; (घ) सू । ४. (क) करवा। ५. (ग), (घ) सेती। ६. (ख) हलै । ७. (घ ) षोयबा । ८. (ग), (घ) हाथां । ६. (ग), (घ) परषीयै । १०. (ग), (घ) या । ११. (ग), (घ) गोरषनाथा । १२. (घ) होय । १३. (ग), (घ) स । १४. (ग), टूटी (१) १५. (ग), (घ) संजम । १६. ( ख ) आकास । १७. (ख), (ग), (घ) पवन के। १८.(क), (ख), (ग) बंध " कंघ । १९. (घ) बिंद । २०. (ख) थीरि होय; (ग) थिर पास - होई।
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