४४ [ गोरख-बानी सवद बिंदौ रे अवधू सबद बिंदौ' थान मांन सब धंधा । आसमां मधे प्रमातमा दीसै ज्यौं जन्न मधे चंदा ।। १२४ ।। आसण दिढ अहार१० दिढ जे न्यद्रा११ दिढ होई। गोरष१२ कहै सुणों रे पूता मरै न बूढा होई ॥ १२५ ।। कोई न्यदै१३ कोई ब्यंदै१३ कोई करै हमारा प्रासा। गोरप कहै सुरें१४ रे अवधू१५ यहु१६ पंथ परा१७ उदासा ॥१२६।। अब के संयम से ज्योति प्रकाशमान होती है। पवन के संयम से बंद लगता है अर्थात् नवद्वारे बंद हो जाते हैं और विंदु (शुक्र) के संयम से शरीर स्थिर हो जाता है । कंद, रकंक । कंद के माने शिवलिंग के समान वह अंश भी हो सकता है जिसके चारों ओर कुडलिनी लिपटी बतायी जाती है ॥ १२३॥ हे अवधृत ? शब्द को प्राप्त करो, शब्द को प्राप्त करो। स्थान (पद अथवा तीर्थ ) को मान देना श्रादि क्रियाएँ सब धंधा हैं । ( शब्द की प्राप्ति से तुम जानोगे कि) श्रारमा में परमात्मा वैसे ही दिखाई देता है जैसे जन में चन्द्रमा का प्रतिविम्ब ||१२॥ गोरख का वचन है कि हे शिष्यो ! श्रासन, भोजन और निद्रा के नियमों में दृढ़ होने से योगी अनर-अमर हो जाता है (योगी का श्रासन अविचल, थाहार अल्प और निद्रा सर्वथा क्षीण होनी चाहिए ।)॥ १२५ ।। कोई हमारी निन्दा करता है, कोई बंदना करता है, कोई हम से (वरदान इत्यादि प्राप्त करने की ) श्राशा करता है। किन्तु गोरख कहते हैं कि हे अवधूत या मार्ग (जिस पर हम चल रहे हैं ) पूर्ण विरक्ति का है, हम निन्दा प्रशंसा सप से उदासीन रहते हैं, किसी से सम्पर्क नहीं रखते ॥ १२६ ॥ १. (ख), (ग), (घ) बंदौ; (ख) वंदौ" व्यंदो । २. (क) में 'रे नहीं है। ३. (ख) धंधा । ४. (ख) मधे मधे; (ग) मंधे मंधे। ५. (घ) प्रमा- तमा। ६. (ख) देपो । ७. (ख), (घ) ज्यू । ८. (ग) ९. (ख) हिदि । १०. (ख) बाहर । ११. (क) नांद्रा; (ख) नीद्रा। १२. तीसरा चरण 'ख' में यों है, 'गोरख कहै बालका' और (ग), (घ) में यों 'नाय कह रे बालकाः । १३. (ख) न्यंदे.. व्यंदे; (ग) नींद.."विंद, (घ) निंद"विदै । १४. (घ) सुणो; (ग) सुणां । १५. (ख) पूता । १६. (ख) यौह (ग) येहूं। १७. (ख) परो। श्रासणि ।
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