६० [गोरख-बानी S ४ १४ १७ गगन मंडल मैं सुनि द्वारे । बिजली चमकै घोर अंधार । ता महिन्यंद्रा आवै जाइ । पंच तत मैं रहै समाइ ॥ १७६ ॥ ऊभां बैठां सूतां लीजै । कबहूँ चित भंग न कीजै। अनहद सबद गगन मैं गाजै। प्यंड पड़े तो सतगुर लाजै ॥ १७७।। एकलौ बीर, दूसरौ धीर, तीसरी घटपट चौथौ उपाध। दस पंच२० तहाँ बाद बिबाद२१ ॥ १७८ ।। तत्त्वों (शरीर ) को मूर्छित कर संज्ञा शून्य कर देती है और जाती हुई चेतना (छैल, रसिया) को जगा देती है, वह निद्रा भाती कहाँ से है ॥ १७ ॥ गगन मंडल ( सहस्रार ) में शून्य द्वार (ब्रह्मरंध्र ) है। वहाँ घोर अंधकार में बिजली चमकती है। उसी में से नोंद आती-जाती है और पंच तत्व (शरीर ) में समा जाती है ॥ १७६ ।। गगन में अनाहत नाद की गर्जना हो रही है, खड़े, बैठे, सोते हर घड़ी उसे लेना (सुनना अथवा उस पर ध्यान लगाना) चाहिए, कभी चित्त भंग न करना चाहिये । (निद्रा के वश असावधान अथवा अचेत होकर मृत्यु की थोर नहीं जाना चाहिए।) यदि शरीरपात हुआ तो गुरु के लिए लज्जा की बात होगी। १७७॥ जो एकाकी (अकेला ) रहता है, वह वीर है। दो धीर होते हैं, उनके साथ साथ तीसरे के आ जाने से खटपट (शुरू हो जाती ) है। चौथे का भी संयोग हो जाय तो (उपाधि) उतपात होने लगता है और जहाँ दस- पाँच इकट्ठे हो जाते हैं, वहाँ तो पूरा कलह ही उपस्थित हो जाता है ॥ १७८ ॥ १. (ख) गीगनि । २. (घ) का द्वार । ३. (ख) वीजल; (ग),(घ) बिचि विचि । ४. (ग) अंधारं। ५. (ख), (घ) तांमैं; (ग) तामे । ६. (ग), (घ) निंद्रा । ७. (घ) जाय समाय । ८. (ख) पांच तत ; (ग) पांच तत्व में; (घ) पांच तत मैं । ६. (ग) सूतौ । १०. (ख) लीजे । ११. (ख) चित स्यू; (ग) चितस्यौं, (घ) सू। १२. (क) नहीं । १३. (ख) गीगनि चढ़ि, (ग), (घ)गगन चढ़ि । १४. (घ) पिंड । ११. (क) गोरष । १६. (ख), (ग) येकलो, (घ) एकइला । १७. (ग), (घ) दूसरातीसरा "चौथा। १८. (ग), (घ) पटपटा, (ख) पटपटे । १६. (ग), (घ) उपाधि । २०. (ख) पांच सात, (ग), (घ) दस वीस | २१. (ख) वीवाद । . .
पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/८५
दिखावट