पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/८७

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ur 9 [गोरख-बानी बैसंत पूरा रमंति सूरा, एक रसि' राषंति काया। अंतरि एक रसि देषिबा बिचरंति गोरषराया ॥१८॥ नाद बिंद बजाइले दोऊ पूरिले अनहद बाजा । एकतिका बासासोधि ले भरथरी कहै गोरष मछिंद्र का दासा ॥१८४ सूर माहिं चंद चंद माहि सूर । चपंपि तीनि तेहुड़ा बाजल तूर। भणन्त गोरषनाथ एक पद पूरा। भाजंत भौंदु साधंति सूरा ॥१८॥ द्वारा प्राणायाम से पाँचों इन्द्रियों को (प्रस्याहार को साधना से ) इन्द्रियार्थों (विषयों) से वापिस हटा लेता है। और दिन रात सचेत ( सावधान) रहता है। ऐसा दरवेश स्वयं ब्रह्मस्वरूप (अल्लाह की जाति का ) हो जाता sho ॥१८२॥ पूरे ( अर्थात् जिन्हें सिद्धावस्था प्राप्त हो गयी है) बैठे रहते हैं, (उनको करने के लिए कुछ शेष नहीं रह जाता ), जो शूर हैं (अर्थात् जो साधका- वस्था में साहस पूर्वक विघ्नों का सामना करते रहते हैं ) वे शरीर को एक रस अर्थात् अपरिवर्तनशील अवस्था में रखते हैं। किन्तु गोरखनाथ आभ्यंतर एकरसता को देखने के लिए अर्थात् प्राप्त करने के लिए विचरण करता है अर्थात् प्रयत्नशील है ॥ १३ ॥ नाद और बिन्दु दोनों को बना लो अर्थात् साधो; अनाहत रूप बाजे को भरो अर्थात् उसमें संगीत ध्वनि निकालो (फूंककर बजाये जाने वाले बाजे से अनाहत का रूपक बोधा गया है ) और हे भरथरी एकांत का बास हूँ हो, यह मछन्दर के दास (शिष्य) गोरख का कथन अर्थात् उपदेश है ॥ १८४ ॥ जब सूर्य (पिंगला नाड़ी) और चन्द्र (इदा नाही) अथवा प्रांधार पनस्थ सूर्य का सहस्रारस्थ चन्द्रमा से मेल हो जाता है और तीन तिर्कट अर्थात् सत् , रज और तम ये तीनों दबा लिये जाते हैं, तब (अनाहत रूप) तुर बजता है। इस प्रकार गोरखनाथ उस पूर्ण-पद अर्थात् सिद्धि का वर्णन करता है जिसको शूर साधक प्राप्त करते हैं और जिसे प्राप्त किये बिना ही मूर्ख उचित मार्ग को स्याग कर भाग जाते हैं ॥ १५॥ . १. (क) रस्य । २. (क) विरंचत । ३. (क) भंजत । ४. (क) साधति । १८३ से १८७ तक की सवदियां (क) में सखियां कही गई हैं।