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पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/९६

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गोरख-यानी] ११ १२ १४ १५ , , आफू षाय' भागि भसकावै । ता मैं अकलि कहां ४ श्रावै । चढ़तां पित्त५ उतरता बाई । तातै गोरष भागि न पाई ॥२०॥ मिंदर छाडै कुटी बंधावै । त्यागै माया और मंगावै । सुन्दरि छाडै नकटी वास ताते ८ गोरख अलगै न्हासै ॥२०९॥ त्रिया न स्वांति (? सांति ) बैद र रोगी रसायणी अर जाचि पाय । बूढा न जोगी सूरा न पीठि पाछै घाब यतनां न मानै श्रीगोरषराय ॥२१॥ जो अफीम खाता है और भाँग का भक्षण करता है उसको बुद्धि कहाँ से आवै । भौग खाने से पित्त चढ़ता है और वायु उतरती है, इस लिए गोरख ने भाँग नहीं खायी ॥ २०८॥ ( लोग जोग तो लेते हैं पर लेना नहीं जानते, एक माया से दूसरी माया में फंस जाते हैं ) मकान छोड़ कर कुटी छदाते हैं, घरवार की माया छोड़ते हैं पर चेला चाटियों से भिक्षा माँगने का काम कराते हैं। घर की सुन्दर स्त्री को छोड़ कर नकटी के साथ रहते हैं, इसी से गोरख (किसी को साथ नहीं लेता ), अलग ही चलता है । न्हास, चलता है। कुमौवनी में 'न्हाना' जाने के अर्थ में पाता है, एक ही प्रयोग उसका पाया जाता है सामान्य भूत में, जैसे 'न्है गे' या 'न्हैगी' (चला गया या चले गये)॥ २०६ ॥ स्त्री साथ रहने से शांति नहीं रह सकती अथवा जो स्त्री स्वाति जल के लिए घातक की लगन के समान पति प्रम नहीं रख सकती वह स्त्री नहीं। वैद्य अगर वस्तुतः वैद्य है तो उसे रोग नहीं व्याप सकता । रसायनी को, जो लोहे श्रादि नीची धातुओं को सोने में बदलने का दावा करता है, माँग कर खाने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए, जोगी को बुढ़ापा नहीं आना चाहिए । शूर की पीठ पर घाव नहीं हो सकता। यदि इन लोगों में ये बातें पायी जायं १. (ख) पीवै तमाषु; (ग) आफू पाइ र । २. (ग) व सकावे। ३. (ख) (ग) कहा त्यां; (ख) कहां तै। ५. (ख) व्यंद । ६. मदूः (ख) म्यंदर । ७. (ख) फेरि; (ग) ओर । ८. (ख) तात; (ग) तरन्यौं (१ तास्यौं) ९. (ख) अलगा। १०. (ग) नासै । ११. (ग) वैद र रीगो (१ रोगी) १२. (ग) रसांइनी । १३. (ग) जाच । उसके पहले 'पर' नहीं है। १४. (ग) पार्छ । १५. (ग) इतना; (ख) में यह सबदी इस प्रकार है- बुढा जोगी वैद रोगी सुरीवा अर पीठी पीछे घाव । येता न बंदै गोरष रावा। १२ अकली। ४.