पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/९५

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१० ८ ११ ६८ [गोरख-ब थंभ बिहूँणी गगन रचीलै तेल बिहूँणी बाती। गुरु गोरष के वचन पतिआया तब धौंस नहीं तहां राती ॥ २०४ पंडित ग्यांनी पर तर बोलै सति का सबद उछेदै । काया कै बलि करड़ा बोलै भीतरि तत्त न भेदै ॥२०५॥ महमा धरि महमा कू मेटै सति का सबद बिचारी । नांन्हां होय जिनि सतगुर षोज्या तिन सिर की पोट उतारी॥२० एक कांमध्येनि वारि सिधि कै गगन सिषर लै बांधी। लागि जीव अपरि वारि सिधि की ल्यौ निरंजन सू सांधी॥२० जब गुरु गोरखनाथ के वचनों पर विश्वास हो गया, तय खंभे के ि स्थित आकाश (ही में ) तेल और बत्ती के बिना (ज्ञान का) प्रकाश सिद्ध गया । तव साधक के लिए रात दिन का प्रश्न नहीं रह जाता। (क्योंकि सदा ज्ञान के प्रकाश में विचरण करता रहता है)॥२०४॥ जो खंडित (अधूरा) ज्ञानी है वही तीखी (प्रखर ) बाते बोलता और ( इस प्रकार ) सत्य के शब्द का उच्छेद करता है, ( उसे उखाड़ फेंक है।) उसके श्राभ्यंतर में तरव का प्रवेश नहीं होता ( उसे ज्ञान तो है नहीं है।) (शरीर ही को वह सब कुछ समझता है, इसीलिए ) शरीर बल पर वह करदे (कठोर) वचन कहता है ॥ २० ॥ महिमावान् होकर भी जो अपने श्रापको महिमावान् नहीं समझते, वित (नन्हा, छोटा) होकर जो सद्गुरु की खोज करते हैं उन सत्य शब्द का विर करने वालों ने सिर से (कर्मों को ) पोटली उतार दी है ॥ २०६ ॥ सिद्ध के दरवाजे एक कामधेनु (आध्यात्मिक अनुभूति अथवा समाधि है जिसे उसने गगन शिखर में ले बाँधा है, (जहाँ स्वयं उसका निवास है। जीय (जो उसे प्राप्त करना चाहता है,) स्त्रयं वार (पादे) में घिर ग (निरुद्ध अवस्था को प्राप्त हो गया ) और निरंजन में उसने लौ लगाल सांधी, संधान की, लगा ली ॥ २० ॥ १. (ख) गरु; (य) गुल । २. (ख) तव पतीयाई । ३. (ख) जब पुता राती; (ग) तव दिवस न राती । ४. (ग) मैहमा; (ख) मईमा। ५. (ख) ६ ६. (ग) 'निनि नहीं है । ७. (ग) जिनि; (घ) जिनि । ८. (म) सिघ । ९.( ले ! १०. (ग) लागी नीव उपरि वार । ११. (ग) ला । १२ (ग) स्यौं साधं