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गोरा

। गोरा [ २८१ लिए असम्भव था । वह चुपचाप सब सहने लगी । भूलकर भी इस विषय में कोई बात कह देनेसे उसे पीछे बड़ा सङ्कोच होता था। अन्तमें इसका परिणाम यह हुआ कि सुचरिता धीरे-धीरे वरदासुन्दरी के हाथसे निकलकर हरिमोहिनीके हाथका खिलौना बन गई। दिन भर वह उसीके पास बैठी रहती थी। उसीके हाथका दिया कुछ प्रसाद पाकर रह जाती थी। आखिर नुचरिताका यह कष्ट हरिमोहिनीसे न देखा गया । हारकर उसे फिर रसोई बनाने का प्रबन्ध करना पड़ा। मुचरिताने कहा--- मौसी, तुम मुझे जिस तरह रहनेको कहोगी, मैं उसी तरह रहँगी । किन्नु तुम्हारे लिए बल मैं अपने हाथसे ला दूँगी यह काम मैं इसको न करने दूंगी। हरिमोहिनीने कहा-बेटी ! मैं अपने लिए कुछ नहीं कहती किन्तु इस जलसे ठाकुरजीकी पूजा कैसे करूँगी ! नुचरिता-मौसी, क्या तुम्हारे टाकुरजी भी जाति-पांति मानते हैं। क्या उन्हें नी प्रायश्चित करना होगा? उनका भी कोई समान है क्या ? आश्विन म दिन नुचरिताकी भक्ति के अागे हरिमोहिनी को हार माननी पड़ी। उसने मुचरिताकी नेवा सम्पूर्ण रूपसे ग्रहणकी ! सतीश भी बहिनकी देखा-देखी मौसीकी रसोई में ही खाने लगा। इस तरह तीनों मिलकर परेश बाबूके घरमें अपना एक अलग ही आश्रम स्थापित कर रहने लगे। सिर्फ ललिता इन दोनों ग्राश्रमांक बीच सेतुरुप होकर रहती थी। वरदासुन्दरी अपनी और बेटियोंको हनिमोहिनीने पास न जाने देती थी किन्तु ललिताको रोक रखना उसके लिए कठिन था ?