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गोरा

२६४] गोरा हो रहे । कुछ ही देर बाद ललिता जहां से उठकर अपने कमरे में चलो गई। भीतरसे किवाड़ लगा लिया। इस घरमें हरिमोहिनी का क्या दशा है, विनय बखूबी समझ गया । उसने बात-चीत करके क्रमशः हरिमोहिनी का सब वृत्तान्त सुन लिया सब बातोंके अन्तम हारमोहिन ने कहा-बाबू ! मेरे समान अनाथों के लिए घर में रहना ठीक नहीं। किसी तीर्थ में जाकर देव-सेवा में मन लगाती यह मेरे लिए अच्छा होता। मेरे पास जो कुछ रुपया पैसा बच रहा है उससे कुछ दिन निवांह चल जाता। तब भी यदि यह अधम शरीर बचा रहता तो मैं किसी के घर में रसोई-पानीका काम करके भी किसी तरह दिन काट लेती । मैं काशी में देख भाई हूँ कि इस तरह कितने ही लोगों का निर्वाह हो रहा है। किन्तु मैं तो बड़ा अभागिन, हूँ मेरा दुर्भाग्य कोई काम होने नहीं देता । जैसे डूबते हुए मनुष्यको एक सहारेकी लकड़ी मिल जाय और वह उसे किसी तरह छोड़ना न चाहे वैसा ही राधा-रानी और सतीश मेरे लिए आधार हो गये हैं ! उनको छोड़कर कहीं जाने की बात मन में आते ही मेरे प्राण सूख जाते हैं । इन दोनोंको कहीं छोड़ना न पड़े इसका भय दिन-रात मेरे मन में लगा रहता है । इस चिन्तासे रात को नींद नहीं आती । अगर इन दोनों को छोड़कर जाना पड़ा तो मैंने इनके साथ इतना स्नेह किस लिए जोड़ा ? तुमसे कहने में मुझे लज्जा नहीं । जबसे इन दोनोंको पाया है तबसे मैं ठाकुरजीकी पूजा ध्यान लगाकर कर : सकी हूँ । यदि ये दोनों मेरे पास से अलग हो जायगे तो ठाकुरजीकी पूजा मेरा ध्यान न लगेगा। यह कहकर हरिमोहिनीने अपने अांचल से आँखें पोछ डाली ।