पृष्ठ:गोरा.pdf/३१७

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। [ ४४ ] हारान वाजूने प्रचण्ड मा धारण कर रणक्षेत्रमं प्रवेश किया। ललिताको अगिनवोट पर विनयके साथ प्राय अाज प्रायः पन्द्रह दिन हो गये हैं। यह बात दो-चार मनुष्योंक कानमें जा चुकी है और धीरे-धीर फैल रही है। ब्रह्म-समाजके हितैषी लोग पालकी गाड़ी करके परस्पर एक दूसरे के घर जाकर कह आये-आज कल जब ऐसी-ऐसी घटना होने लगी है तब ब्राह्म-समाजके भविश्यको घोर अन्धकारम छा गया समझना चाहिये । इसके साथ-साथ सुचारता जो हिन्दू हुई है. और हिन्दू धर्मवाली मौसीके घर में रहकर नियम निटाके साथ अकुरजी की सेवा करके दिन बिता रही है, वह बात भी घर-घरमें फैलने लगा। बहुत दिनांस ललिता के मन में एक बारका विवाद समाधा: वह नित्य रातको संने नहल कहता था- - हर ननद और जागकर में वह अखि नन्दी हुई कजन थी, नह में. हा, में की हार न नानूंगी, किसी तरह भी नहीं : बह मानसिक कलह और किसके साथ नहीं केवल विनवके साथ थी । विनयको चिन्ता उसके मनपर सम्पूर्ण रूपसे अधिकार किये बैठी थी। विनय नीचे बैठकर बातें कर रहा हूँ, जानते ही उसका कलेजा उछलने लगता था। उसके ननकी सोची हुई सब बात छूमन्तरकी तरह उड़ जाती थी। विनया जहाँ दो दिन उसके घर न आया कि वह मारे सोच के मन ही मन पछाड़ खाने लगती थी। उसके ऊपर एक झूठ-मूठ का क्रोध और अपने ऊपर म्लानि उत्पन्न हो श्राती थी। एक दिन उसने पोश बाबूसे जाकर कहा-~-पिताजी ! क्या मैं कि कन्या पाठशाला में शिक्षा देनेका भार नहीं ले सकती ?