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गोरा

३२४ ] गोरा सुधीर ने बात को कुछ मुलायम करने के अभिप्राय से कहा--विनय 'बाबू आदि कहीं इस विद्यालयके साथ सम्मिलित न हो पड़े; इसीका भय वे लोग करते हैं ? ललिताने क्रोध से आग बबूला होकर कहा-भय नहीं, समाजका भाग्य मानना चाहिये । योग्यता में विनय वाबू के साथ बराबरी करनेवाले कितने आदमी ब्रह्म-समाजियों में हैं ? सुधीर ने ललिताके क्रोध से संकुचित होकर कहा-यह तो सही है। किन्तु विनय वाबू तो- ललिता-यही न कहोगे कि वे ब्राह्म-समाज के अन्र्तगत नहीं हैं। इसीसे ब्राह्म-समाज उनको दण्ड देगा। ऐसे समाजको मैं गौरवास्पद नहीं समझती । अात्रियोंको एकाएक अन्तध्यान होते देख सुचरिता समझ गई थी कि ऐसा क्यों हुआ है, किसके द्वारा यह कुचक्र चल रहा है । सुधीर के साथ बातें करके ललिता सुचरिता के पास गई और बोली- कहो बहन, कुछ सुना है ? सुचरिताने मुसकुराकर कहा-सुता तो नहीं है किन्तु जानती सब हूँ! ललिता ने कहा-क्या यह सब सहने की बात है ? सुचरिता ने ललिता का हाथ पकड़ कर कहा-~-सहने में क्या मानहानि है ? पिताजी कैसे सहनशील हैं सब बातों को वे कैसे सह लेते हैं। ललिता- बहन मैं तुम्हारी बात कार नहीं सकती, किन्तु मेरे मन में कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई बात सह लेना एक तरह से अन्याय को स्वीकार करना है। सुचरिताने कहा--तुम क्या करना चाहती हो सो कहो। ललिता--मैं क्या करूंगी इस पर मैंने अभी तक ध्यान नहीं दिया है। मैं यह नहीं बता सकती कि मैं क्या करूँगी परन्तु कुछ करना ही होगा। हम लोगो के सदृश कर्तव्य परायण स्त्रियों के पीछे जो लोग ऐसे खोटे भावसे पड़े है, वे अपने को चाहे जितना बड़ा क्यों न मानें परन्तु