पृष्ठ:गोरा.pdf/४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ ६ ]

श्रानन्द- आज पूजा पाठ आदि नित्य कर्म और स्नान भोजन से छुझे पाकर करणदयाल बहुत दिनोंके बाद आनन्दमयीके कमरेके फर्श पर अपने कम्बल का आसन बिछा कर बेफिक्री से जैसे अलग होकर बैठे आनन्दमयीने कहा--अजी सुनते हो, तुम तो तपस्या करते हों, घरकी बात कुछ सोचते नहीं, किन्तु मैं गोराके लिए सर्दा डरते डरते अधमरी हो रही हूँ। का-क्यों, भय काहे का है ? सो तो मैं ठीक बता नहीं सकतीं । मगर मुझे जान पड़ता है गोराने अाजकल जो हिन्दू आचारसे चलना शुरू किया है, वह उसके लिए अभी अच्छा न होगा, उसे-नहीं फलेगा । मेरा मन कहता है कि इस ढङ्गमें चलते चलते अन्तमें कोई एक विपत्ति अवश्य उपस्थित होगी।- मैंने तो तुमसे तभी कहा था कि उसका जनेऊ न करो मगर उन दिनों तो तुम हिन्दू धर्मको कुछ भी मानते नहीं थे। तुमने कहा—गलेमें एक सूत पहना देने से किसी का कुछ बनता विगड़ता नहीं। लेकिन केवल सूत ही तो नहीं है-अब उसे किस तरह संभालोगे किस तरह रोकागे ? कृष्ण-खूब ! सब दोष शायद मेरा ही है। शुरूमें तो तुमने ही गलती की । तुमने उसे किसी तरह छोड़ना ही नहीं चाहा । उन दिनोंमें मेरा भी गंवारू ढङ्ग था -धर्म का कुछ ज्ञान तो था ही नहीं । आजकलका जमाना होता तो क्या मैं ऐसा काम कर सकता ! अानन्द-लेकिन चाहे जो कहो, मैं यह किसी तरह नहीं मान सकती कि मैंने ऐसा करके कुछ अधर्म किया। तुम्हें तो याद ही होगा लड़का होने के लिए मैंने क्या नहीं किया। जिसने जो बताया, वही --