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। गोरा [.४०३ परेशबाबू ने ललिता के मुखकी ओर देखा । ललिताने उनके मनका भाव समझकर कहा-~-बाबूजी, मेरा जो धर्म है, वह मेरा है, और सदा रहेगा । मुने असुविधा हो सकती है; कष्ट भी हो सकता है। किंतु जिन लोगों के साथ मेरे मत का, यहाँ तक कि आचरण का, मेल नहीं है, उन्हें गैर बनाकर दूर हटाकर रक्खे बिना मेरे मेरे धर्म में बाधा पड़ने की बात मैं किसी तरह अपने मन में नहीं ला सकती। परेशवाबू चुन रहे ! ललिता ने फिर कहा- पहले मुझे जान पड़ता था, ब्राह्म-समाज से अलग होना जैसे समत्त सत्य से अलग होना है। किन्तु इधर कुछ दिन से मेरी वह धारणा बिलकुल चाती रही है। परेश बाबू म्लान भाव से जरा मुसकराते थे । ललिताने कहा-बाबू जी मैं तुमको यह जताने में असमर्थ हूँ कि मुझमें कितना बड़ा परिवर्जन हो गया है। ब्राह्म-समाज के भीतर मैं जिन सब लोगों को देख रही हूं, उनमें से अनेक के साथ मेरा धर्म-मत एक होने पर भी उनके साथ तो मेरा किसी तरह ऐक्य नहीं है, वो भी 'ब्राह्म-समाज' के नाम का आश्रय लेकर उन्हीं को मैं विशेष करके अपना कहूं और पृथ्वी के अन्य सभी मनुष्यों को अपने से दूर रक्खू, इसका कुछ मी अर्थ अाज कल मैं नहीं समझ पाती ! परेश बाबूने अपनी विद्रोही कन्या की पीठ पर धीरे-धीरे हाथ फेरते कहा-व्यकिगत कारण से जिस समय मन उत्तेजित रहता है, उस समय स्या विचार ठीक तौर से किया जा सकता है ? पूर्व-पुरुष से लेकर सन्तान सन्तति पर्यन्त मनुष्यकी जो एक पूर्वापरता है, उसके मङ्गल को देखने के लिए समाज का प्रयोजन होता है। वह प्रयोजन के कृत्रिम प्रयोजन नहीं है। तुम लोगों के भावी बंश के भीतर जो दूर न्यापी भविष्य निहित है, उसका मार जिसके ऊपर स्थापित है, वही तुम्हारा समाज है। उसकी बात क्या न सोचोगा। विनय ने कहा-हिन्दू समाज है।