पृष्ठ:गोरा.pdf/४०७

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[ ६० ] सुचरिता निश्चय जानती थी कि गोरा अाज अावेगा। सवेरेसे ही उसका कलेजा धड़क रहा था । सुचरिता के मनमें गोरा के आगमन की प्रत्याशा के आनन्दके साथ कुछ मय भी मिला हुआ था । गोरा उसे जिस ओर खींच रहा था, और बालपन से उसका जीवन-वृक्ष अपनी जड़ और डाल-पात लेकर जिस ओर फैल रहा था, इन दोनों के बीच पड़कर वह घबरा रही थी ! मैं अपना पैर किस ओर बढ़ाऊँ, यह उसकी समझ में न पाता था। कल जब मौसी के घरमें गोर, ने ठाकुरजी को प्रणाम किया तब सुचरिता के मनमें यह पात बेतरह खटकी । गोरा ने प्रसाम तो किया ही है, क्या उसका विश्वास भी ऐसा ही है, या उसने ऊपर के मनसे प्रणाम किया है ? इन बातको बार बार सोचकर वह किसी तरह अपने मनको शान्त न कर सकी। सुचरिता के कमरे में गोरा ने ज्योंही पैर रखा त्योही नुचरिता ने पूछा-क्या आप इस मूर्ति की भक्ति करते हैं ? गोरा ने एक अस्वाभाविक बल के साथ कहा-हाँ, भक्ति करता हूँ। यह सुनकर सुचरिता सिर नवाकर चुप हो रही। उनकी इस नम्र नीरव वेदनासे गोराके मनमें कुछ चोट लगी । वह मट बोल उठा देखो, मैं तुमसे सच कहता हूँ। मैं ठाकुरजीकी भक्ति करता हूँ या नहीं यह ठीक-ठीक नहीं कह सकता। किन्तु मैं अपनी देश-भक्ति की मक्ति करता हूँ। इतने दिनोंसे समस्त देशकी पूजा जहाँ पहुँचती है, वही स्थान मेरे लिए पूज्य है। कृस्तान पादरीकी माँति वहाँ किसी तरह विन दृष्टि नहीं डाल सकता। सुचरिता मन ही मन कुछ सोचती हुई गोरा के मुंह की ओर देखती you