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गोरा

। गोरा [ ४१० विनय-अगर मैं तुम्हारा मुसलमान मित्र होता तो ! गोरा –तो उसकी बात ही अलग होती । पेड़ की डाल टूट कर यदि श्राप ही अलग हो पड़े तो ये उसे किसी तरह फिर पूर्ववत् अपना नहीं बना सकता । किन्तु बाहर से जो लता श्राकर उससे लिपटती है उसे वह आश्रय देता ही है । यहाँ तक कि अन्धड़ से टूटकर गिर पड़ने पर भी उसे नहीं छोड़ता। किन्तु अपना जब पराया हो जाय तो उसको छोड़ने के सिवा और कोई गति नहीं । इसीलिए तो इतने विधि निषेध हैं, इतनी बैंचातानी है ! विनय--इसी से कहता हूँ कि त्याग का कारण इतना हलका और उसका विधान इतना नुलन होना उचित न था। जिस समाजमें अत्यन्त साधारण आघात लगनेसे ही जुदाई होती है और वह जुदाई हमेशाके लिये रह जाती है उस समाज में मनुष्यको स्वछन्द होकर चलने फिरने और काम धन्धा करने में कितनी बाधा पहुँचती है, क्या तुम इस वातको सोचकर नहीं देखते? गोरा - उस चिन्ताका भार मेरे ऊपर नहीं, समाज के ऊपर है । समाज उसकी, जैसी चाहिये, चिन्ता कर रहा है । विनयने हंसकर कहा-मैं भी · इतने दिनों तक ये सब बातें इसी तरह कहता था ! आज मुझे भी यह बात किसीके मुँहसे सुननी होगी, यह कौन जानता था। बात बनाकर बोलनेका दण्ड आज मुझे अवश्य भोगना पड़ेगा, यह मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ ? गोर.-भुनगा जब आगमें गिरने जाता है तब वह भी ठीक तुम्हारी भांति, इसी तरह,, तर्क करता है। इसलिए मैं अब तुमको व्यर्थ सम. झाने की चेष्टा न करूँगा । विनयने कुरसी से उठकर कहा—अच्छी बात है, तो मैं जाता हूं: एक घार माँ से भेट कर आऊँ। मा. नं०२७