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गोरा

] गोरा A सुचरिताने किसी तरह उनकी प्रतिष्ठा को बिगाड़ना नहीं चाहा। हरिमोहिनीके प्रस्ताव पर वह किसी तरह राजी न हुई। तब वह मनकी कोपामिसे प्रज्ज्वलित हो बार-बार गोराको लक्ष्य करके कटु वाक्योका प्रयोग करने लगी। उसने कहा-गोरा अपनेको चाहे जितना बड़ा हिंदू कहकर अपनी बड़ाई करे। परन्तु हिन्दू समाजमें उसे पूछता कौन है ? उसे कौन जानता है ? यदि वह लोभ में पड़कर ब्राह्म घर की किसी रुपये-पैसेवाली लड़की से ब्याह करेगा तो समाजके शासनसे फिर उद्धार कैसे पावेगा। दस लोगोंके मुँह बन्द करने के लिये रुपये फेंकने पड़ेंगे। तो भी समाज उसे ग्रहण करेगा या नहीं, इसमें संदेह है। सुचरिता-मौसी, तुम ये बातें क्यों कह रही हो? तुम जानती हो, ये बिल्कुल बे सिर पैर की बातें हैं। हरिमोहिनीने कहा-मैं बूढ़ी हुई, मुझे कोई बातोंमें कैसे ठगेगा? मेरे आँख कान खुले हैं । मैं सब कुछ देखती सुनती हूँ, परन्तु समझ बूझकर चुप हो रहती हूँ। सुचरिता का स्वभाव बड़ा ही सहिष्णु था, तथापि वह अबकी बार उकताकर बोली-तुम जिनकी बात कह रही हो उन्हें मैं गुरु मानती हूँ, उनपर मेरी हार्दिक भक्ति और श्रद्धा है। उनके साथ मेरा कैसा भाव है, यह जब तुम किसी तरह नहीं समझती। अब मैं यहाँसे जाती हूं। जब तुम शांत होगी तब मेरे हृदय को पहचानोगी, और तुम्हारे साथ अकेली रहनेका अवसर होगा तब मैं फिर यहां आऊँगी। हरिमोहिनी-गोरा को यदि तुम दूसरी दृष्टि से देखती हो, यदि उसके साथ तुम्हारा व्याह न होगा, तो तुम ऐसी अवस्था में ऐसे योग्य वर ( कैलाश ) का निषेध क्यों करती हो ? तुम कुँवारी तो रहोगी नहीं। सुचरिता-क्यों न रहूँगी ! मैं व्याह न करूँगी। हरिमोहिनीने आँखे फाड़ कर कहा तो बुढ़ापे तक यों ही रहेगी? सुचरिता-हाँ, मृत्युप यन्त ।