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गोरा

गोरा ललिताने जिस आशासे बह पूछा था, वह पूर्ण रूपसे फलित न हुई ! तब उसने फिर कहा-अच्छा, कहो तो बहिन, गौरमोहन कैसा था? मेरे मन में तो वह अच्छा न लगा ! उसका चेहरा और मेष विचित्र था । तुम्हें यह कैसा जान पड़ा ? सुचरिता-उसके रोम रोम में हिन्दूपन भरा था। ललिता नहीं, नहीं, हमारे मौसा महाशय भी तो बड़े भारी हिन्दू हैं परन्तु उनकी चाल और ही प्रकार की है। इसकी चाल कैसी है, यह मैं न जान सकी। सुचरिता ने हँसकर कहा-"कैसी ही हो !" यह कहते ही उसके ऊँचे चमकीले माथे पर दिये हुए तिलकका स्मरण कर सुचरिता को क्रोध हुा । क्रोध करने का कारण यही था कि इस तिलक के द्वारा गोराने मानो अपने माथे पर बड़े-बड़े अक्षरों में यह लिख रक्खा है कि मैं तुम लोगों से अलग हूँ । यदि उस विभिन्न भावके प्रचण्ड अभिमानको सुचरिता मिट्टीमें मिला सकती तभी उसके अङ्गकी ज्वाला मिटती । धीरे धीरे करके दोनों सो गई । जब रातके दो बज गये तब सुचरिता ने जागकर देखा, बाहर खूब पानी बरस रहा है बीच बीचमें उसकी मसहरीसे होकर बिजली की छटा चमक जाती है। घरके कोने में जो चिराग रक्खा था वह बुझ गया । उस रातके सन्नाटे गाढ़े अन्धकार और अविश्राम वर्षा के झर-झर शब्दसे सुचरिताके हृदयमें एक प्रकारकी पीड़ा सी मालूम होने लगी । उसने कभी इस करवट, और कभी उस करवट बदल कर सोनेकी चेत्र की । पास ही ललिताको गहरी नीदमें निमम देख उसे ईश्यों हुई, पर किसी तरह उसको नींद न आई । अन्तमें वह रूठकर विछोनेसे उटी और बाहर आई। खुली खिड़कीसे पास खड़ी होकर सामने छतकी ओर देखने लगी। बीच-बीचमें हवाके झोंकेसे पानीके छीटे उसके बदन पर पड़ रहे थे । घूम-फिरकर फिर वही सन्ध्या समय की सब बातें उसके मनमें एक-एक कर आने लगी । सूर्यास्त समय