पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/१०२

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इन्सान पैदा हुआ -- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - और हिनहिनाया । सवार ने झटके से अपना सिर ऊँचा किया , हमारी तरफ देखा और फिर सिर मुका लिया । "यहाँ के आदमी कैसे अजीव हैं और वे कितने भयंकर दिखाई देते हैं , " ओरेल की उस स्त्री ने धीरे से कहा । मैं मरने पर गया । उसका जल , जो पारे की तरह चमकीला और चंचल था , पत्थरों पर उछलता कूदता चला जा रहा था । पतझड़ में टूटे हुए पत्ते इसमें पडकर श्रानन्दपूर्वक नाच रहे थे । कितना अद्भुत और सुन्दर दृश्य था । मैंने अपना हाथ मुंह धोया और केतली भरी । अपने पीछे झाड़ियों में मैंने उस औरत को हाथ पाँव पर रेंगते देखा । वह चिन्तित होकर पीछे देसती जा रही थी । ____ " क्या बात है ? " मैंने पूछा । वह औरत रुक गई जैसे डर गई हो । उसका चेहरा काला पड़ गया और उसने अपने शरीर के नीचे कुछ छिपाने की कोशिश की । मैंने भाँप लिया कि क्या चीज थी । " इसे मुझे दो , मै इसे जमीन में गाद दूगा, " मैंने कहा । " श्रोह मेरे प्यारे । तुम किसके बारे में बात कर रहे हो ? यह तो किसी स्नानघाट के फर्श के नीचे गाढ़ा जायगा. " " क्या तुम्हारा ख्याल है कि वे तुम्हारे लिये अभी यहाँ एक स्नानघर वनवा देंगे , तुम मजाक कर रहे हो और मुझे डर लग रहा है । मान लो कोई जंगली जानवर इसे खा जाय तो फिर भी इसे गाढ़ना तो पड़ेगा ही " और इतना कहकर उसने अपना मुंह घुमा लिया और मुझे एवं गीली, भारी पोटली देकर , शरमाते हुए, धीमे शब्दों में विनती सी करती हुई वाली " तुम इसे अच्छी तरह गाद दोगे न ? जितना गहरा गाढ़ सकते हो रतना गहरा गाइना ईश्वर की खातिर मेरे बच्चे की खातिर । तुम ऐसा - "