पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/१०६

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१०६ इन्सान पैदा हुआ - - - - - - - " क्या तुम वास्तव में जा रही हो ? " मैंने पूछा । " हाँ " " अपना ख्याल रखो, माँ । " “पवित्र कुमारी मेरी सहायता करेगी ? उसे उठा कर मुझे दे दो " "उसे मैं ले चलूंगा । " इस बात पर हम दोनों में थोड़ी देर तक वहस हुई और फिर वह मान गई । हम लोग तब साथ साथ , कन्धे से कन्धा मिढ़ा कर चल खड़े हुए । " मुझे उम्मीद है मैं लड़खड़ाऊँगी नहीं , " उसने अपराधी के समान हँसते हुए मेरे कन्धे पर हाथ रख कर कहा । रूस का नया निवासी , ऐसा मानव , जिसका भाग्य अज्ञात था , गहरी साँस लेता हुश्रा मेरे हाथों पर लेटा हुआ था । समुद्र , जो सफेद गोटे को कतरनों से ढका हुना था , किनारे पर टकरा रहा था झाड़ियाँ आपस में कानाफूसी कर रही थीं । सूर्य मध्याह्न की रेखा को पार करता हुआ चमक रहा था । हम धीरे धीरे चलते रहे । कभी कभी माँ रुक जाती, एक गहरी साँस लेती और अपना सिर उठा कर चारा भोर . समद , जगल , पहाड़ और फिर अपने बेटे के चेहरे की ओर देखती । उसकी आँखें , जो वेदना के आँसुओं से पूरी तरह धुल चुकी थीं , पुन श्राश्चर्य जनक रूप से निर्मल हो गई थी । उनमें पुन असीम स्नेह का प्रकाश चमकने लगा था । एक वार वह रुकी और बोली " भगवान् ! मेरे प्यारे अच्छे भगवान् । यह कितना अच्छा है कितना अच्छा । श्रोह , अगर मै इसी तरह चलती रहती , सदैव दुनियाँ के अन्ति छोर तक , श्रीर यह , मेरा छोटा सा वच्चा बड़ा होता जाता, आजादी से बढ़ता रहता, अपनी माँ की छाती के पास रह कर मेरा प्यारा छोटा बच्चा ममुह से निरन्तर मर्मर की ध्वनि उठ रही थी