कामरेड : एक कहानी इस शहर की प्रत्येक वस्तु वही अद्भुत और बढ़ी दुर्बोध थी । इसमें बने हुए बहुत से गिरजाघरों के विभिन्न रंगो के गुम्बज श्राकाश की ओर मिर उठाये खड़े थे परन्तु कारपानों की दीवालें और चिमनियाँ इन घण्टाघरो में भी ऊँची थीं । गिरजे इन व्यापारिक इमारतों की ऊँची ऊँची दीवालों से छिपे हुए, पत्थर की उन निर्जीर चहारदीवारियो में इस प्रकार इवे हुए थे जैसे मिट्टी और मलवे के ढेर में भहे , कुरूप फूल खिल रहे हो । और जब गिरजों के घण्टे प्रार्थना के लिए लोगों को बुलाते तो उनकी झनकारती हुई श्रावाज लोहे की छतों से टकराती और मकानों के बीच बनी हुई गहरी गलियों में खो जाती । इमारत विशाल और अपेक्षाकृत कम श्राफर्पक थीं परन्तु श्रादमी कुरूप थे । ये सदेव नीचता पूर्ण व्यवहार किया करते थे । सुबह से लेकर रात तक वे भूरे चूहों की तरह, शहर की पतली टेढ़ी मेढ़ी गलियों में इधर से उधर भागा करते और अपनी उत्सुक तथा लालची घासे फाड़े कुछ रोटी के लिये तथा कुछ मनोरञ्जन के लिये भटकते रहते । इतने पर भी कुछ लोग चौराहों पर सो होकर , निर्वल मनुष्यों पर दे पपूर्ण निगाहें जमाए रहने, यह देखने के लिये कि ये सबल पक्तियों के सामने नम्रतापूर्वक मुकते हैं या नहीं । सयल प्यनि . धनवान थे और और वहाँ के प्रत्येक प्राणी का यह विश्वास था कि केवल धन ही मनुप्य को शक्ति दे सकता है । वे सब अधिकार
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