पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/१२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मोचीया की लड़की १२६ भय समा गया । पति के प्रति दया को भावना एक भयंकर दुस में बदल गई और कोई और निकास न पाकर कटुता के रूप में प्रकट होकर चोट पहुंचाने लगी । र जब वह बैठा हुश्रा वृक्ष की छाया को अहाते में होकर अपनी असंख्य उंगलियों को फैलाये तथा किसी वस्तु को अपने बन्धन में जकढने के लिए उन्हें हिलाते हुए अपने पैरों की ओर बढ़ते देख रहा था तब उसने अपनी स्त्री से रहस्यपूर्ण ढङ्ग से फुसफुसाते हुए कहाः । " वहाँ, तुम जानती हो ..... फाँस में तो ....." ___ " श्रोह , चुप रहो ! ” उसने चिड़चिढ़ाती आवाज में चीखते हुए कहा और अपने सिर को पोछे को और झटक कर घुटती सी श्रावाज में बोली "परन्तु हम तो इसे देखने के लिए जिन्दा नहीं रहेंगे । वचों को मत भूलो... " ____ वह अपनी उस अद् त, एकाकी और स्वच्छ विचारों की ऊँचाई से नीचे अहाते में फैले हुए जीवन के सिकुड़े हुए टेढ़े मेढ़े छोटे रास्तों पर गिर कर खामोश हो गया । वह रोना चाहती थी परन्तु गुस्से ने उसके आँसुओं को मुसा दिया था और जब उसने सड़े होते हुए कहा तो उसको थापाज कॉपने लगीः ___ " मैं सोने जा रही हूँ । मैं सोचती हूँ कि तुम अपने कामरेडों के पास जायोगे ? " " हाँ , ” उसने कुछ रुक कर कहा । यह जाते हुए बव्यदाती गई " अगर ये लोग तुम्हें जल्दी ही गिरफ्तार कर लें - तुम मत्र वतमागों को - क्योंकि देर या प्रवेर से यह तो होना ही है ! हो सकता है कि इसमें तुम लोगो को बुद्ध धरल या जाय । " चन्द्रमा व प्रकाश से ऊँचा चढ़ गया था । हायायं मिल गई थी , कुसे भौंक रहे थे ।