पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/१३७

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मोदीया की लरकी १३६ की थी । उसके गालों को हष्टियों ऊँची उठी हुई और आँखें पतली तथा लम्बी थीं । " मैं अजीब सा लग रहा हूँ फिर भी तुम नहीं हँसी ! " उसने चारों ताज देखते हुए कहा उस छोटे से कमरे में एक पलंग , एक मेज, दो कुर्मियों , एक अल्मारी और दरवाजे के पास एक बड़ा स्टोव था । सामने वाले कोने में एक मूर्ति लटक रही थी । उसके ऊपर फूले हुए सरपत की टहनी , और एक क्मल पा फज लगा हुंचा था । काली दीवालों पर भदकीले रंग वाली छोटी छोटी तस्वीरें लटक रही थीं । रिपकलियाँ उन पर शोर करती हुई रेंग रही थीं । कड़ियों के बीच रस्सी के टुकड़े लटके हुए थे । खिड़की की जगह एक चौकोर शीशा लगा हुना था जो पुराना होने के कारण धुधला पर गया था । ___ अँगीठी पर झुकी हुई लड़की ने जवाय नहीं दिया । उसे चुरा लगा सौर पृणापूर्वक सोचने लगा : " सम्भव है बदतमीज हो । " जोर से उसने प्ला : " क्या यही रसोई घर है ? " " क्या घर में कोई और भी रहता है ? " उसने उयलती हुई केटली को मेज पर रख दिया और जी को उयल रोटी के कतने काट कर , चाय बनाते हुए, बाहर परसी हुई वर्षा की धीमी और उमा देने वाली मी आवाज में बोली ; " दो बुद्दी औरतें यहाँ रहती हैं । लेकिन घर पर कभी भी ग्वाना नहीं पकाती । ये अपने धनवान रिश्तेदारों के यहाँ गार पाना सा लेती है । समर या रात को भी घर नहीं पाती । मेरे पास एम रोटी के घालाया और वह भी नहीं है - मुझे इसका अफसोस है ! " " मुझे भूग नहीं है " अपने हृदय में एक चैनो अनुभव करते हुए