पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/१८४

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बुढ़िया इजरगिल १८७ तुरन्त मर जाते थे । उस भागी हुई जाति को औरतें और बच्चे इससे बुरी तरह व्याकुल होकर रोने लगे और पुरुष जीवन से निराश हो गए । उन्होंने अनुभव किया कि यदि उन्हें जीवित रहना है तो यह जङ्गल छोड़ना पड़ेगा लेकिन ऐसा करने के केवल दो हो उपाय थे-~- या तो वे अपने पुराने घरों को वापिस चले जाँय परन्तु वहाँ उन्हें पुनः अपने उन निर्दयी और शक्ति शाली दुश्मनों के हाथों में पड़ना पड़ता । या वे इस जगज में होकर आगे बड़े परन्तु यहाँ दैत्यों जैसे विशाल वृक्षों ने उनका मार्ग रोक रक्खा था जो अपनी विशाल शाखाओं को एक दूसरे से दृढ़ता पूर्वक उलझाए हुए थे तथा जिनको ज. उस दलदली भूमि में गहराई तक जमो हुई थी ये वृक्ष उस उदास वातावरण में चुरचाप और स्थिर खड़े थे । दिन में भी यहाँ अन्धेरा रहता था और रात को जब वे लोग भाग जलाने तो ऐसा लगने लगता था जैसे वे वृक्ष उन्हें और भी नजदीक पाकर घेरकर खड़े होगए हों । वे श्रादमी, जो मैदान के खुन्ने वातावरण में रहने के श्रादी थे रात दिन इस काले अन्धकार पूर्ण , दुर्गन्धि से परिपूर्ण जङ्गल में रहने को बाध्य थे तो उन्हें रखा जाना चाहता था । जब हा पेड़ो की चोटियों पर होकर बहती तो वह जङ्गल और भी भयानक हो उठत्ता जैसे भयंका वातावरण में कोई शोकगीत गाया जा रहा हो । ये यादमी शक्तिशाली थे और जिन लोगों ने इन्हें भगा दिया था , उनके पास पुनः जा सकते थे परन्तु वे युद्ध में मरने से भयभीत थे क्योंकि उन पर प्राचीन परम्पराओं को सुरक्षित रखने का उत्तरदायित्व था । यदि वे युद्ध में मारे जाते तो टन तार उनकी परम्परा भी नष्ट हो जाती । इमो कारए वे पीछे नहीं लौटना चाहते थे । वे रात भर उदास बैठे हुए सोचने रहते , चारों घोर सनसनाहट का शन्द्र व्याप्त हो जाता । दलदल को जरोली दवा उनको दम घोटने लगती । जय वे यठे रहने तो उनके अलावा की रोशनी से उत्पन्न दाबायें मृक भार में उदलनी हुई टन धारों और नाचती रही । ऐसा प्रतीत होता कि चे पाय नी नार ही लिक उम मल और दलदल में कहने चाले भूत- प्रेत भनी विजय का उसव मना रहे थे । इस प्रकार घे मनुष्य