५८६ बुढ़िया इजरमिल - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - कि आज मनुष्य अच्छी तरह जीना नहीं जानते; वे पेट के लिए दिन रात परिश्रम करते रहते हैं और सारा जीवन इसी में बिता देते हैं । और जीवन में भोगने योग्य सभी अच्छी वस्तुओं से वचित रह कर अपना सम्पूर्ण समय नष्ट कर अन्त में भाग्य को दोष देने लगते हैं । भाग्य से और इससे क्या सम्बन्ध ? प्रत्येक व्यक्ति स्वय अपने भाग्य का निर्माता होता है । मैं आज कल के हर तरह के श्रादमी देखती हूँ परन्तु मुझे बहादुर और मजबूत श्रादमी नहीं दिखाई देते । वे सब कहाँ चले गए "... .. ? और श्रव सुन्दर श्रादमी तो बहुत ही कम रह गये हैं । " वह बुढ़िया विचारों में खो गई उन बहादुर और सुन्दर पुरुषों और स्त्रियों का क्या हुया ? वे कहाँ गायब हो गए ? और वह उस अन्धेरे मैदान की घोर टकटको बाँध कर देखने लगी मानो वहाँ अपने प्रश्नों का उत्तर हूँढ रही हो । मैं चुपचाप उसकी कहानी का इन्तजार करता रहा क्योंकि मुझे भय या कि अगर मैंने उससे कुछ और पूछा तो वह तुरन्त अपने असली मार्ग से भटक जायगी और इधर उधर की बातें करने लगेगी । अन्त में उसने बोलना प्रारम्भ किया और यह कहानी सुनाई - पुराने जमाने में वहत पहले , घास के मैदानों में एक जाति रहती थी जिसके तीन योर अयधिक घना जङ्गल था । उस जाति के लोग खुशमिजाज , साकतवर श्रीर दादर थे । परन्तु एक दिन उन पर भयकर मुसोवत पाई । किलो अज्ञात प्रदेश से श्राफर कुछ विदेशी जातियों ने उन्हें भगाकर उस घने जाल में दूर तक खदेव दिया । वह जङ्गल धना और दलदलों मे भरा हुआ था क्योंकि उममें उगे हुए वृक्ष बहुत पुराने, और लम्बे थे । उनकी शापाएं श्रापन में हम तरह उलमो हुई थीं कि प्रकाश भी नहीं दिखाई देता था । मयंका किरणें उस वनी हरियाली को चीर कर घदी मश्किल से मोन तक पहुच पाती थी । सूर्य की किरणे जमीन पर पहुँच कर दुर्गन्धपूर्ण गैन उत्पन्न .फर देखी यी जिससे यादमी
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