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पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/१९८

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आवारा प्रेमी २०१ - - - - लगा । साहित्य की रहस्यमय बातों के लिए उसके मनमें बड़ा आकर्षण या । विशेष रूप से उसे कविता पढ़ने का बहुत शौक था और उसने स्वयं भी कुछ कविताएं बनाई थीं । कभी कभी वह मेरे पास राँग की धूल से मैले कागज, जिन पर पेंसिल से कुछ लिखा होता, जाता । इन कविताओं का विषय सदैव एक ही रहता और वे कुछ कुछ इस प्रकार की होती थीं : "मैं प्रथम दृष्टि -निक्षप में ही तुम्हें प्यार करने लगा था जब काली झोल पर मेरे नेत्र तुम्हारे नेत्रों से मिले थे । और उस समय से मेरे विचारों में केवल तुम और तुम्हारा स्वर्गिक चन्द्रमुख नाचता रहता है । " जब मैंने उसे बताया कि यह कविता नहीं है तो उसने अाश्चर्यचकित होकर पूछा - " क्यों नहीं है ? देखो ? यह पूर्ण रूप से तुकान्त है । इसमें प्रत्येक पंक्ति के अन्तिम शब्द का अन्तिम अक्षर दूसरी तथा अन्य पंतियों के अन्तिम शब्द के अन्तिम अक्षर से मिलता हुश्रा है । " " परन्तु सोचो खरमोन्तोव की कविता में कैसी सुन्दर ध्वनि है । " ___ "श्रोह, ठीक है । उसने कितना अभ्यास किया है जब कि मैंने थभी भारम्भ किया है । इन्तजार करो और सब देखना जब मुझे इसका अभ्यास हो जाय " उसका श्रारम- विश्वास बड़ा मजेदार था परन्तु इसमें कोई गलत मात महीं थी । उसे यह साधारण सा विश्वास हो गया था कि जिन्दगी रमे प्यार करती है जैसे कि घोबिन स्तेपसा उसे प्यार करती है । और यह कि वह जो कुर साहे कर सकता भौर यह कि सफलता प्रत्येक स्थान पर उस की प्रतीता कर रही है । गिरजे में घरटे बज रहे थे प्रातःकाल की प्रार्थना करने के लिए । उन चिड़ियों ने उस आवाज को सुनकर जो खिड़की के शीशों को मनझना रही थी , गाना बन्द कर दिया । लारका घुदबुदाया : " हमें प्रात:कार की प्रार्थना में जाना चाहिये भयया नहीं ?